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अभोजन 520
अमड अभोगेनाति ... अपरिभोगेन न परिभजितब्बो, पारा. अट्ट अमक्ख पु., [अम्रक्ष], उपेक्षा या तिरस्कार का अभाव, 2.261; अपरिभोगेनाति अयुत्तपरिभोगेन, सारत्थ. टी. अनिन्दा, अनवज्ञा - क्खो प्र. वि., ए. व. - अमक्खो च 2.380.
अपळासो च..... अ. नि. 1(1).116. अभोजन नपुं.. [अभोजन], भोजन नहीं करना, नहीं अमक्खी त्रि., अनिन्दक, निन्दा न करने वाला, अवज्ञा या खाना - नं प्र. वि., ए. व. - अजज्जितन्ति अभोजनं म. उपेक्षा न करने वाला - क्खी पु., प्र. वि., ए. व. - नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).186; - नेन तृ. वि., ए. व. - तस्स यम्पावुसो भिक्खु अमक्खी होति अपळासी, म. नि. 1.136%; अभोजनेन सुद्धिकामो हुत्वा तं न भुञ्जति, सु. नि. अट्ट. भिक्खु अमक्खी होति, मक्खविनयरस वण्णवादी, अ. नि. 1.266.
3(2).142. अमोजनीय/अभोजनेय्य त्रि., (भुज के सं. कृ. का निषे. अमक्खिकमधु नपुं.. कर्म. स. [अमक्षिकमधु], मधुमक्खियों [अभोजनीय], अभोज्य, अखाद्य, खाने के अयोग्य, भोजन से रहित मधु - धुं द्वि. वि., ए. व. - अमक्खिकमधु के लिए सर्वथा निषिद्ध, अपवित्र - य्यं नपुं.. प्र. वि., पस्सामि तं खादन्तो नत्थी ति, सु. नि. अट्ठ. 1.50. ए. व. - गाथाभिगीतं मे अभोजनेय्यं, सु. नि. 81; अमक्खित त्रि., मक्ख के भू. क. कृ. का निषे., नहीं लीपाअभोजनेय्यन्ति भुञ्जनारहं न होति, सु. नि. अट्ठ. पोता गया, दूषित न किया गया, अकलुषित, अभ्रष्ट, अपवित्रता 1.119; - य्यं द्वि. वि., ए. व. - बहुम्पि भुजेय्य अभोजनेय्यं, से रहित, शुद्ध, असंलिप्त - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - जा. अट्ठ. 5.15; अभोजनेय्यन्ति भुजितुं अयुत्तं, जा. अट्ठ. विसदोव निक्खमति अमक्खितो उदेन अमक्खितो सेम्हेन 5.17.
अमक्खितो रुहिरेन अमक्खितो केनचि असुचिना सुद्धो अभ्यावहरण/अज्झोहरण नपुं.. [अभ्यवहरण], भोजन विसदो, म. नि. 3.165. करना, खाना, गले के नीचे ले जाना - णेसु सप्त. वि., अमक्खेत्वा मिक्ख के पू. का. कृ. का निषे०, न बिगाड़ कर, ब. व. - भुज पालनाभ्यावहरणेस. सद्द. 2.471.
विनाश न करके, कलुषित या दूषित न करके, अशुद्ध न अभ्यास' पु.. [अभ्यास], बार बार दुहराना, पुनरावृत्ति प्रशिक्षण, करके - व्यञ्जनं अमक्खेत्वा तया कथितगाथानं पन मयह शिक्षा, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त, सराभ्यास आदि अत्थो, जा. अट्ठ.4.242; व्यञ्जनं अमक्खेत्वा सुद्ध भासितानं के अन्तः , द्रष्ट. (आगे).
...., जा. अट्ठ. 4.243. अभ्यास पु.. [अभ्याश], समीपता, निकटता, आसन्नता, अमक्खेन्त ।मक्ख के वर्त. कृ. का निषे०, विकृत न करते नजदीकी, पड़ोस- समीपं निकटासन्नो पकट्ठाभ्याससन्तिके. हुए, विनष्ट न करते हुए, दूषित न करते हुए - न्तो पु., अभि. प. 705.
प्र. वि., ए. व. - पुब्बापरञ्च अमक्खेन्तो आचरियेहि दिन्ननये अम' अमगमने [अं गतौ], जाने के अर्थ में प्रयुक्त एक ठत्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).151; अमक्खेन्तोति धातु - अम दम हम्म मीम छम गतिम्हि सद्द. 2.412; अम अविनासेन्तो, म. नि. टी. (मू.प.) 1(2).176. याते..., धा. मं. 55; अम गमने, मो. धा. 192; हन-जन-भा- अमग्ग पु. [अमार्ग], अनिर्धारित मार्ग, कुमार्ग, अनुचित मार्ग रिखनु अम-वे-धे-धा-सि-कि-हि इच्चेवमादीहि धातूहि नुणु- - ग्गेन तृ. वि., ए. व. - अमग्गेन पथं मापेत्वा याम, तु इच्चेते पच्चया होन्ति, क. व्या. 673.
जा. अट्ठ. 5.370; - ग्गे सप्त. वि., ए. व. - अम रोग के अर्थ में प्रयुक्त एक धातु - अम रोगे, मेति मग्गामग्गववत्थानेन अमग्गे मग्गसआय, सु. नि. अट्ठ.1. अमयति, अन्धो, सद्द. 2.558; अमरोगतादिसु.धा. मं. 139; 8; - कुसल त्रि., [अमार्गकुशल]. वह, जो मार्ग के विषय खाद-अम-गमु इच्चेतेसंधातूनं खन्ध अन्ध-गन्धादेसा होन्ति में निपुण न हो, मार्ग का अज्ञाता - लो पु., प्र. वि., ए. व. कप्पच्चयो च, क. व्या. 666.
- एको पुरिसो अमग्गकुसलो... तमेनं सो अमग्गकुसलो अमकस त्रि., ब. स. [अमशक]. मच्छड़रहित मच्छड़ों से पुरिसो अमुं मग्गकुसलं पुरिसं मग्गं पुच्छेय्य, स. नि. मुक्त - से सप्त. वि., ए. व. - ते हि सोत्थिं गमिस्सन्ति, कच्छे वामकसे मगा, स. नि. 1(1).62; ते अमङ्क त्रि., [अमङ्क, घबराहट रहित, पछतावारहित, निराशा अमकसे पब्बतकच्छे वा नदीकच्छे वा मगा विय सत्थिं गमिस्सन्तीति से मुक्त, विशारद - भाव पु., [अमभाव], निर्भीकता, स. नि. अट्ठ. 1.98.
तेजस्वी होना - वो प्र. वि., ए. व. - अविष्पटिसारो
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