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अप्पटिविरुद्ध
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अप्पटिसङ्खाय/अप्पटिसङ्खा पापधम्मा, इतिवु. 47; नपटिविरताति अप्पटिविरता, इतिवु. - तो पु., प्र. वि., ए. व. -- ... पुब्बे अप्पटिसंविदितो अट्ठ. 203; सुरामेरयपाना अप्पटिविरता .... चूळव. 465. इन्दखीलं अतिक्कामेय्य, पाचि. 212; ... योहं पुब्बे अप्पटिविरुद्ध त्रि., पटि + वि + रुध के भू. क. कृ. का अप्पटिसंविदितो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमेय्यन्ति, निषे. [अप्रतिविरुद्ध], अविरुद्ध, वह, जो किसी के विरोध में म. नि. 2.349-50; अप्पटिसंविदितोति अविज्ञातआगमनो, नहीं है, अनुकूल - निट्ठा अनुरुद्धप्पटिविरुद्धस्स उदाहु । म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.279; - तं द्वि. वि., ए. व. - पुब्बे अननुरुद्धअप्पटि-विरुद्धस्सा ति? म. नि. 1.95.
अप्पटिसंविदितं मं. .... पहं अपच्छि, स. नि. 1(2).48; पुब्बे अप्पटिवुट्ठ त्रि., पटि + (कुस के भू. क. कृ. का निषे. अप्पटिसंविदितन्ति इदं नाम पुच्छिस्सतीति पुब्बे मया अविदितं [अप्रतिक्रुष्ट], अतिरस्कृत, अनुपेक्षित, अनिन्दित, वह, जिसे अञातं. स. नि. अट्ठ. 2.58; - विदित्वा पटि + सं + डांटा फटकारा न गया हो, वह, जिसे खरी-खोटी बातें न विद के पू. का. कृ. का निषे. [अप्रतिसंवेद्य], संवेदन या कही गयी हों, - हो पु., प्र. वि., ब. व. - असंकिलिट्टो अनुभव न करके, ज्ञान न पाकर, बिना जाने हुए ही - अनुवज्जो अप्पटिवुट्टो समणेहि बाह्मणेहि विझूहीति, अ. सञ्चेतनिकानं कम्मानं कतानं उपचितानं अप्पटिसंवेदित्वा नि. 1(1).206; - द्वा ब. व. - न सङ्घीयन्ति, न सङ्कीयिस्सन्ति, दुक्खस्सन्तकिरियं वदामि, अ. नि. 3(2).260; 262. अप्पटिवुवा समणेहि बाह्मणेहि विहि, स. नि. 2(1).66%3; अप्पटिसंवेदन त्रि., ब. स. [अप्रतिसंवेदन], वेदनारहित, कथा. 285.
किसी प्रकार की वेदना का अनुभव न करने वाला - अप्पटिवेक्खित्वा/अप्पटिवेक्खिय पटि + वि + Vइक्ख अप्पटिसंवेदनो मे अत्ताति इति वा हि, दी. नि. 2.52; के पू. का. कृ. का निषे. [अप्रत्यवेक्ष्य], प्रत्यवेक्षण न करके, अप्पटिसंवेदनो मे अत्ताति इमिना रूपक्खन्धवत्थुका, दी. उचित सोच-विचार न करके, स्वयं प्रत्यक्ष रूप में उचित नि. अट्ट. 2.85. अनुचिन्तन न करके- अप्पटिवेक्खित्वा मंसं परिभूञ्जिस्ससि, अप्पटिसंहरणा/अप्पटिवरणा स्त्री., पटिसंहरणा का निषे. महाव. 294; सामं अप्पटिवेक्खियाति परस्स वचनं गहेत्वा [अप्रतिसंहरण]. पीछे की ओर पैर या कदम न मोड़ना, अत्तनो पच्चक्खं अकत्वा पथविस्सरो राजा दण्डं न पणये न अविचलता, स्थिरता, अकम्पता, छोड़कर न भाग जाना, पट्टपेय्य, जा. अट्ठ. 4.171; बद्दभण्ड अवहाय, मग्गं अपरित्याग - अप्पटिवानीति अनुक्कण्ठना अप्पटिसकरणा, अप्पटिवेक्खिय, जा. अट्ठ. 4.4.
अ. नि. अट्ठ. 3.101. अप्पटिवेदित त्रि., पटि + विद के प्रेर. के भू. क. कृ. का अप्पटिसङ्घा' स्त्री., पटिसङ्घा का निषे. [अप्रतिसंख्या, निषे. [अप्रतिवेदित], वह, जिसके बारे में पहले से घोषणा जागरुक चेतना का अभाव, सुनिश्चित निर्णय या ज्ञान नहीं की गयी है, असूचित, नहीं बतलाया गया- अनामन्तो का अभाव, प्रज्ञा द्वारा ज्ञात नहीं किया जाना, यथार्थ पविसति, पुब्बे अप्पटिवेदितो. जा. अट्ठ. 6.307.
ज्ञान का अभाव, - सा प्र. वि., ए. व. - इधेकच्चो अप्पटिवेध पु., पटिवेध का निषे. [अप्रतिबेध], अज्ञान, अप्पटिसङ्घा अयोनिसो आहारं आहारेति दवाय मदाय मण्डनाय प्रतिवेधस्तरीय ज्ञान का अभाव, गहरी पैठ का अभाव, गम्भीर विभूसनाय, ध. स. 1353; रागादीनं अविनयो असंवरो अप्पहानं आन्तरिक ज्ञान का अभाव, - धो प्र. वि., ए. व. - यं अपटिसङ्घाति अयं अविनयो नाम, अ. नि. अट्ठ. 1.70; - झं अआणं... असम्बोधो अप्पटिवेधो असङ्गाहणा.. मोहो पमोहो । द्वि. वि., ए. व. - अप्पटिसङ्ख पजहतो पटिसहानुपस्सनावसेन सम्मोहो... मोहो अकुसलमूलं- पु. प. 127; - धा प. वि., धम्मा अञमञ्ज नातिवत्तन्तीति, पटि. म. 29; - जाय तृ. ए. व. - अरियसच्चानं अननुबोधा अप्पटिवेधा एवमिदं वि., ए. व. - वतिं भिन्दित्वा गावीनं पविसनं विय सहसा दीघमद्धानं... तुम्हाकञ्च, दी. नि. 2.71; अप्पटिवेधाति । अप्पटिसङ्काय पमादं आगम्म रागरस उप्पज्जनं, उदा. अट्ठ. अप्पटिविज्झनेन, दी. नि. अट्ठ. 2.119; द्रष्ट, पटिवेध के अन्त..
अप्पटिसङ्खाय/अप्पटिसङ्खा' अ., क्रि. वि., मूल रूप में अप्पटिसंविदित त्रि., पटि + सं+विद के भू. क. कृ. का पटि + सं + Vखा के पू. का. कृ. अप्पटिसङ्खाय का ही निषे. [अप्रतिसंविदित], वह, जिसे किसी (विषय या व्यक्ति संक्षिप्तीकृत रूप [अप्रतिसंख्याय], बिना चेतना के, ठीक से
आदि) का पूरा-पूरा अनुभव नहीं है या वह, जिसके विषय जाने-बूझे बिना ही, प्रत्यवेक्षण के बिना, उचित सोच-विचार में ठीक ठीक ज्ञान नहीं है, अनुद्घोषित, असूचित, अविज्ञात, किये बिना - सो तं आपानीयकंसं सहसा अप्पटिसङ्घा
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