________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अकम्मनिय
गरुको अकम्मज्ञ मासाचितं मझे अ. नि. 3 (1).153: - ता स्त्री. भाव. निषे [ अकर्मण्यता ], कर्म न करने की मनोदशा, आलस्य भरे मन की स्थिति दुब्बल्यं मन्दता अकम्मज्ञता कायस्स. मि. प. 276: अकम्मञ्जताति चित्तगेलज्जसातोव अकम्मज्ञताकारो ध. स. अड. 402. अकम्मनिय त्रि., कम्मनिय का निषे, तत्पु, स० [अकर्मणीय], अयोग्य, कर्म न करने योग्य वित्तं भिक्खवे, अभावितं अकम्पनीयं होतीति, अ. नि. 1 ( 1 ). 7; तुल० कम्मञ्ञ एवं अकम्मनेय्य; - वग्ग त्रि. अ. नि. प्रथम भाग के प्रथम निपात के एक वग्ग का नाम, अ. नि. 1 ( 1 ). 7-8 ता स्त्री. भाव. [ अकर्मण्यता ] अकल्लता अकम्मनियता नेति
-
-
-
-
-
72.
अक्रम्मनेय्य त्रि, कम्मनेय्य का निषे, तत्पु, स. [ अकर्मण्य ]. जो कर्म करने में सक्षम न हो, काम न करने योग्य बाहु पसारेति अक्रम्मनेय्यं, जा. अट्ट. 4.346. अकम्मास त्रि, कम्मास का निषे, तत्पु० स० [अकल्माष], निष्कलङ्क कलङ्क-रहित, विशुद्ध सीलानि अखण्डानि अच्छिदान असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि. म. नि. 1.404; अच्छिदेहि असबलेहि अकम्मासेहि, स. नि. 2 (2). 266 कारी त्रि [अकल्माषकारिन्] अनवरत कार्य करने वाला, सतत कार्य करनेवाला दीघरतं खो अयमायस्मा अखण्डकारी अच्छिदकारी असबलकारी अकम्मासकारी सन्ततकारी सन्ततवृत्ति, अ. नि. 1 (2) 217. अकरं √कर के वर्त. कृ. का निषे., प्र. पु. ए. व. [अकुर्वन्], नहीं करता हुआ रसेसु गेधं अकरं अलोलो, सु. नि. 65. अकरणीय त्रि., करणीय का निषे [ अकरणीय, अ + √कृञ् + अनीयर]. शा. अ. न करने योग्य कर्म, भिक्षु के लिए बुद्ध द्वारा वर्जित किये गए हिंसा आदि पापकर्म अकामा अकरणीयं वा करणीयं वापि कुब्बति, जा. अड. 5.225; चत्तारि च अकरणीयानि तं ते यावजीवं अकरणीयं महाव. 123; ला. अ. क. वह, जिसके पास कुछ भी करने को नहीं है सो तदहेव अकरणीयो पक्कमति, महाव. 203 ख. अजेय, नहीं जीतने योग्य अकरणीयाव.. वज्जी रज्ञा - मागधेन, दी. नि. 2.59.
O
अकराणि त्रि. [अकरणि, स्त्री.] नहीं करने योग्य कत्तब्बं अकराणि ते जम्मकम्मं, क. व्या. 647. अकळु / अकलु / अगळु नपुं., [अगरु, अगुरु], सुगन्धित द्रव्य, अगर की सुगन्धित लकड़ी, सुगन्धित पदार्थ के रूप व्यवहूत पेड़ - लोहं त्वगरु चागलु, अभि. प. 302;
-
www.kobatirth.org
-
-
7
न
अकसिरलामी
अहञ्च खो अगळु चन्दनञ्च सिलाय पिंसामि पमत्तरूपा, जा. अड. 4.399; अगलु तगरतालीसकलोहितचन्दनानुलितगत्तो. मि. प. 307. अगलु-चन्दन-विलित्त त्रि, अगर और चन्दन के लेप से युक्त कुण्डलिनो अगलुचन्दनविलित्ता, जा. अट्ठ. 7.96. अकल्य त्रि, निषे. स० [ अकल्य], अप्रसन्न, असंतुष्ट अकल्यरूपो गळयति अस्सुकानि सु. नि. 696: ता स्त्री.. भाव. अस्वस्थता, अप्रसन्नता, अनीरोगता, द्रष्ट. अकल्लता (आगे); - रूप त्रि०, ब० स० [अकल्यरूप], असंतुष्ट स्वभाव वाला, अप्रसन्न रूप वाला अकल्यरूपो गळयति अस्सुकानि सु. नि. 696.
अकल्याण त्रि. निषे, तत्पु. स. [ अकल्याण ] असुन्दर, असुखकर, अशोभन इधलोकपरलो कत्थभञ्जक अकल्याणमित्तसंसग्गं खु. पा. अट्ठ. 100; - करण नपुं०, कुत्सितकर्म, असुखकर एवं अरुचिकर कर्म अकल्याणकरणकल्याणाकरणपच्चयानञ्च खु. पा. अ.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
127.
अकल्ल' क्रि, निषे. स. [ अकल्य], अनुपयुक्त, अप्रतिरूप, असत्य अन्धोवट्टो अकल्लो, थेरीगा. 443. अकल्ल नपुं. [आकल्य] संभवत: 'आकल्ल' का भ्रष्ट पाठ, रोग, बाधा - गेलञ्ञकल्लमाबाधो, अभि. प. 323. अकल्लक त्रि. कल्लक का निषे [ अकल्यक], बीमार, रुग्ण, अस्वस्थ आहर मे भन्ते भण्डिक, नाहं अकल्लको, पारा 73, भवं अकल्लकोति भवन्तं पटिजग्गितुं आगतोम्हीति
-
Gill. 31. 3.409.
अकल्लता स्त्री. भाव. [ अकल्यता ]. चित्त, वेदना संज्ञा एवं संस्कार स्कन्धों की अस्वस्थता, शिथिलता, अकर्मण्यताया चित्तस्स अकल्लता अकम्मज्ञता... इदं वुच्चति थिनं, ध. स. 1162; अकल्लताति चित्तस्स गिलानभावो ध. स.
For Private and Personal Use Only
-
अट्ठ. 402.
"
अकवाटक त्रि., कवाटक का निषे, ब० स० [अकपाटक], द्वाररहित, बिना किवाड़ वाला ते विहारा अकवाटका होन्ति, चूळव. 273.
अकसाव त्रि. कसाव का निषे, ब. स. [अकाषाय]. काषायरहित, मलरहित, पवित्र अदोसा असावा, अ. नि. 1 (1) 135 त नपुं भाव तं नेमियापि अवङ्गत्ता अदोसत्ता अकसावत्ता अ. नि. 1 (1).135. अकसिरलामी, [अकृच्छ्रलाभी] बिना कठिनाई या दुख के प्राप्त करने वाला, सहज या सुलभ रूप से प्राप्त करने