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पुराण 18४३॥
अथानन्तर जानकी आगे जायकर रामको देख श्रापको वियोग सागर के अन्तको प्राप्त भई | मानती भई, जब सीता सभामें आई तब लक्षमण अर्घ देय नमस्कार करता भया, और सब राजा प्रमाण
करते भए सीता शीघ्रता कर निकट श्रावने लगी तब राघव यद्यपि अक्षोभित हैं तथापि सकोप होय मनमें विचारते भये इसे विषम बन में मेलीथी सो मेरे मनकी हरणहारी फिर आई । देखो यह महाँ ढीठ हैं मैं तजी तौभी मोसे अनुराग नहीं छाडे है यह रामकी चेष्टा जान महा सती उदास चित्त होय विचारतीभई मेरे वियोगका अन्त नहीं पाया मेरा मनरूप जहाज विरह रूप समुद्र के तीर प्राय फटा चाहे है । ऐसी चिन्त से व्याकुल चित्तभई पगके अंगूठेसे पृथिवी कुचरती भई बलदेवके समीप भामंडल की बहिन कैसी सोहे है जैसी इन्द्र के आगे सम्पदा सोहे तब राम बोले हे सीते मेरे आगे कहां तिष्टहै तू परे जा में तेरे देखने का अनुरागी नहीं मेरी अांख मध्यान्हके सूर्य और प्राशी विष सर्प तिन को देख सके परन्तु तेरे तनु को न देख सके हैं तू बहुत मास दशमुख के मन्दिर में रही अब तुझे घर में गरूना मुझे कहां उचित तब जानकी बोली तुम महा निर्दई चित्तहो तुमने महा पण्डित होयकर भीमद लोकन की न्याई मेरा तिरस्कार कीया सो कहां उचित मुझे गर्भवती को.जिनदर्शन का अभिलाष उपजा था सो तुम कुटिलता से यात्रा का नाम लेय विषम वनमें डारी यह कहां उचित, मेरा कुमरण होता और कुगति जाती इसमें तुमको कहां सिद्ध, जो तुम्हारे मनमें तजवे की थी तो आर्यिकावों के समीप मेली हुतो ।
जे अनाथ दीन दलिदी कटुम्ब रहित महा दुखी तिनको दुख हरिवेका उपाय जिनशासन का शरण है इस | समान और उत्कृष्ट नहीं, हे पद्मनाभ तुम करने में तो कळू कमी नकरी, अबप्रसन्न होवो आज्ञा करो सो
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