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पद्म
६४४ ॥
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करूं यह कहकर दुख की भरी रुदन करती भई । तब राम बोले हे देवि मैं जानू हूं तिहारा निर्दोषशील पुरा है और तुम निपाप अणुव्रत की धरणहारी मेरी आज्ञा कारिणी हो तुम्हारे भावनकी शुद्धता में भलि भांति जाहूं परन्तु ये जगत् के लोक कुटिल स्वभाव हैं । इन्होंने वृथातुम्हारा अपवाद उठाया सो इनका सन्देह मिटे और इनको यथावत् प्रीतीति यावे सो कर. तब सीता ने कही आप याज्ञा करो साही प्रमाण जगत् में जेते प्रकार के दिव्य हैं सो सभ कर के पृथिवी का सन्देहं हरू, हे नाथ विषों में महा विष कालकूट है जिसे सूकर आशी विष सर्प भी भस्म होय जाय सो मैं पीऊं और अग्नि की विषम ज्वाला में प्रवेश करूं और जो श्राप श्राज्ञा करो सो करू तत्र क्षण एक विचार कर राम बोले अग्नि कुण्ड में प्रवेश करो, सीता महा हर्ष की भरी कहती भई यही प्रमाण तब नारद मन में विचारते भये यह तो महासती है परन्तु अग्निका कहाँ विश्वास इसके मृत्य यासंगी और भामण्डल हनूमानदिक महा कोप से पीडित भये और लवकुश माता का अग्नि में प्रवेश करवेका निश्चय जान अति व्याकुल भये और सिद्धार्थ दोनों भजा ऊंची कर कहता भया हे राम देवों से भी सीता के शील की महिमा न कही जाय तो मनुष्य कहाँ कहें। कदाचित् सुमेरु पाताल में प्रवेश करे और समस्त समुद्र सूक जाय तो भी सीता का शीलवत चलायमान न होय, जो कदाचित् चन्द्र किरण उष्ण होय, और सूर्य किरण शीतल होय तो भी सीताको दूषण न लगे मैं विद्या के बल से पंच सुमेरु में तथा जे और अकृत्रिम चैत्यालय शास्वते वहां जिनबन्दना करी पद्मनाभ सीताके व्रत की महिमा में ठौर ठौर मुनियों के मुग्वसे सुनी है इसलिये तुम महा विचक्षण हो महासती को आाग्न प्रवेश की आज्ञा न करो और आकाश में विद्याधर र पृथिवी में
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