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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परागा 18०६ पद्म न तजनो लोकबिना बिचारे निदोषियोंका दोष लगावें हैं तैसे मुझे लगाया सो श्राप न्यायकगेसो अपनी वुद्धिसे विचार यथार्थ करना किसीके कहे से काहूको झुठा दोष न लगावना और सम्यकदर्शनसे विमुख मिथ्यादृष्टि जिनधर्मरूप रत्नका अपवाद करे हैं सो उनके अपवादके भयसे सम्यकदर्शन की शुद्धतान तजनी वीतरागका मार्ग उरमें दृढ धारणा मेरेतजने का इस भवमें किंचित मात्र दुख है और सम्यक दर्शनकी हानिसे जन्म २ में दुखहै इस जीवको लोकमें निधि रत्न स्त्री बाहन राज्य सबही सुलभ हैं एक सम्यकदर्शन रत्नही महादुर्लभ है राजमें पापकर नरकमें पड़ना है एक ऊर्धगमन सम्यकदर्शन के प्रतापही से है जिसने अपनी आत्मा सम्यक दर्शनरूप अाभूषण कर मंडित किया सो कृतार्थ भया। ये शब्द जानकी ने कहे हैं जिसको सुनकर कौन के धर्म बुद्धि न उपजे है देव एक तो वह सीता स्वभावही कर कायर और महाभयंकर बनके दुष्ट जीवोंस कैसे जीवेगी जहां महा भयानक सों के समूह और अल्पजल ऐसे सरोवर तिनमें माते हाथी कर्दम करे हैं और जहां मृगोके हमस मृग तृष्णा विषे जल जान वृथा दौड़ व्याकुलहोय हैं जैसे संसार की माया विष गगकर रागी जीव दुखीहोय और जहां कौछिकी रज के संग कर मर्कट अति चंचल होय रहे हैं और जहां तृष्णासे सिंह व्याघ्र ल्यालीयों के समूह तिनकी रसना रूप पल्लव लहलहाट करे हैं, और चिरम समान लाल नेत्र जिस के ऐसे क्रोधायमान भुजंग फुङ्कार करे हैं और जहां तीब्र पवन के संचार कर क्षणमात्र में वृक्षों के पत्रों के ढेर होय हैं और महा अजगर तिनकी विषरूप अग्नि कर अनेक वृक्ष भस्म होय गये हैं, और माते हाथियों की महा भयंकर गर्जना उसकर वह बन अति विकराल है और उनके शुकरों की सेनाकर सरोवर मलिन | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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