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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराग समस्त राणी सीताकी सेवा करे और ऐसे मनोहर शब्द निरन्तर कहे हैं हे देवते हे पूज्य हे स्वामिनी हे || ईशानने सदा जयवन्त हो बहुत दिन जीवो आनन्दको प्राप्त होवो वृद्धिको प्राप्त होवो आज्ञा करो इस भांति स्तुति करें और जो आज्ञा कगे सो सीस चढ़ावें अति हर्षसे दोस्कर सेवा करें और हाथ जोड सीस निवाय नमस्कार करें वहां सीता अति आनंदसे जिन धर्मकी कथा करती तिष्ठे और जोसामंतों की भेट आवे और राजा भेट करें सो जानकी धर्मकाय में लगावे यहतो यहां धर्मका आराधन करे है। अयानन्तर वह कृतांतवक सेनापति तप्तायमानहै चित्त जिसका रथके तुरंगखेदको प्राप्त भएथे तिन को खेदरहित करता हुवा श्रीगमचन्द्रके समीप अाया इसको पावता सुन अनेक राजा सन्मुख पाए सो कृतांतबक आयकर श्रीरामचंद्रके चरणों को नमस्कार कर कहताभया हे प्रभो में प्राज्ञा प्रमाण सीता को भयानक बन में मेलकर आया हूं उसके गर्भमानही सहाई है हे देव वह नाना प्रकारके भयंकर जीवों के प्रति घोर शब्दकर महा भयकारी है और जैसा बेताल कहिये प्रेतों का वन उसका श्राकार देखा न जाय तैसे सघन वृक्षों के समूह कर अन्धकार रूपहै जहां स्वतःस्वभाव पारणे भैसे और सिंह द्वेषकर सदा युद्धक हैं और जहां घूघू बसे हैं सो विरूप शवदकर हैं और गुफावों में सिंह गुंजार करें सो गुफा गुजार रही हैं और महाभयंकर अजगर शब्द करें हैं और चीतावोंकर हते गये हैं मृगजहां कालको भी विकराल ऐसा वह बन उस विषे हे प्रभो सीता अश्रुपात करती महादीम बदन आपको जो शब्द करतीभई सो सुनो, आप आत्मकल्याण चाहो हो तो जैसे मुझे लजीतैसे जिनेंद्रकी भक्ति न तजनी, जिसे लोकोंके अपवाद कर मासे भतिअनुरागथा तोभी तजीतैसे किसीके कहनेसे जिनशासनकी श्रद्धा For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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