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पुरमा 18.0७.
जल होय रहे हैं, और जहां ठौरठौर भूमि में कांटे और सांठे और सांपों की बमी और कंकर पत्थर तिनकर || भूमि महा संकटरूप है और डाभ की अणी सूईसे भी अति पैनी हैं और सूके पान फूल पवनकर उडे उडे । फिरें हैं जैसे महाअरण्य में, हे देव जानकी कैसे जीवेगी, में ऐसा जानू हूं क्षणमात्र भी वह प्राण राखिवेको समर्थ नहीं, हे श्रेणिक सेनापति के यह वचन सुन श्रीरामश्रति विषाद को प्राप्त भए कैसे हैं वचनजिनकर निर्दईका भी मन द्रवीभत होय श्रीरामचन्द्र चितवते भए देखो में मदचित्तने दुष्टों के वचनोंकर अत्यन्त निंद्य कार्य कीया कहां वह राजपुत्री और कहां वह भयंकर बन यह विचार कर मर्या को प्राप्त भये फिर शीतोपचार कर सचेत होय विलाप करते भए सीता में है चित्त जिनका, हाय श्वेत श्याम रक्त तीन वर्ण के कमल समान नेत्रों की धरणहारो, हाय निर्मल गुणों की खान मुखकर जीता है चन्द्रमा जिसने, कमलकी किरण समान कोमल, हाय जानकी मोसे वचनालाप कर, तु जाने ही है कि मेरा चित्त तो विना अतिकायर है हे उपमारहित शीलव्रत की धरणहारी मेरे मन की हरणहारी, हितकारी हैं पालाप जिसके हे पाप वर्जिते निरपराध मेरे मन की निवासनी तू कौन अवस्थाको प्राप्त भई होगी, हे देवि वह महा भयंकर बनकरजीवों कर भरा उस में सर्वसामग्री रहित कैसे तिष्ठेगी हे मो में आसक्त चकोरनेत्र लावण्य रूप जल की सरोवरी महालज्जावती विनयवती त कहां गई, तेरे श्वास की सुगन्ध कर मुख पर गुञ्जार करते जे भ्रमरतिन
को हस्त कमल कर निवारती अति खेदको प्राप्त होयगी, तू यूथ से विछुरी मृगी की न्याई अकेली । भयंकर बनमें कहां जायगी जो बन चितवन करते भी दुस्सह उस में तू अकेली कैसे तिष्ठेगी कमल के
गर्भ समान कोमल तेरे चरण महासुन्दर लक्षण के घरणहारे कर्कश भूमि का स्पर्शकैसे सहेंगे और बनके
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