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पद्म
॥८१॥
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ने अपनी बहिन न पराई यह क्या युक्त किया एक दिन श्रीकण्ठ चैत्यालयोंके बन्दना के निमित्त सुमेरु पर्वत पर विमान में बैठ कर गए विमान पवन समान वेग वाला और अति मनोहर है. सो बन्दना कर आवते थे मार्ग में पुष्पोतर की पुत्री पद्माभा का राग सुना और वीणका वजावन सुना उसका राग मन और श्रोत्रका हरणहारा है सो राग सुन मन मोहित भया गुरु समीप संगीत गृह में वीण वजावतीं पद्माभा देखी उसके रूप समुद्र में उसका मन मग्न हो गया मनके काढिवे को समर्थ भया उसकी ओर देखता रहा और यहभी अति रूपवान सो इसके देखने से वहभी मोहित भई यह दोनों परस्पर प्रेमसूत कर बन्धे सो उसकी मनशा जान श्रीकण्ठ उसको आकाश में ले चला तब परिवार के लोगों ने राजा पुष्पोत्तर पै पुकार करी कि तुम्हारी पुत्री को श्रीकण्ठ ले गया राजा पुष्पोतर के पुत्र को श्रीकंठने अपनी बहिन न परणाई थी उससे वह क्रोधरूप याही अब अपनी पुत्री के हरणे से अत्यन्त कोपित होकर सर्व सेनालेय श्रीकण्ठ के मारणे को पीछे लगा दांतों से होंठों को पीसता क्रोध से जिस के नेत्र लाल होरहे हैं ऐसे महाबली को श्रावते देख श्रीकंट डरा और भाज कर अपने बहनेऊ लंका के घनी कीर्तिधवल की शरण आया सो समय पाय बड़ों के शरण जायाही करते हैं राजा कीर्तिधवल श्रीकंठ को देख अपना साला जान बहुत स्नेह से मिला छातीस लगाया बहुत सन्मान किया इनमें आपस में कुशल वार्ता होरही थी कि पुष्पोतर सेना सहित आकाश में आए कीर्तिधवल ने उनको दूर से देखा राजा पुष्पोत्तरके संग अनेक विद्याधरों के समूह महातेजवान हैं खड्ग सेल घनप बाण इत्यादि शस्त्रों के समूह से द्याकाश में तेज होय रहा है।
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