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पद्म
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की ध्वजा जिसके जिसे देख रणभूमिमें शत्रु पलाय जांय सो राजा पवनका पुत्र अंजनीके उदर विष । पुराण, उपजा जिसने लंकाके कोट दरवाजे ढाहे हैं ऐसी बात परस्पर स्त्री जन करे हैं तिनके बचनरूप पुष्पों
की मालाकर पूजित जो रामसो राजमार्ग होय आगे गए एक चमर ढारती जो स्त्री उसे पूछा को हमारे विरहके दुःखकर तप्तायमान जो भामंडलकी वहिन सो कहां तिष्ठे है तब वह रत्नोंके चूडाकी ज्योति कर प्रकाश रूपहै भुजा जिसकी सो गांगुरकिर समस्याकर स्थानक दिखावतीभई हे देव यह पुष्पप्रकीर्ण नामा गिरि निझरनावों के जलकर मानों हास्यहीकरे है वहां नन्दनवन समान महा मनोहर बन उस. विषे राजा जनककी पुत्री कीर्तिशील है पग्विार जिसके सो तिष्ठे है इसभांति रामजीसे चमर ढारती स्त्री कहती भई और सीताके समीप जोउर्मिका नाम सखी सब सखियोंमें प्रीतिकी भजनहारी सो प्रांगुरी । पसार सीताको कहती भई हे देवि यह चन्द्रमा समानहै छत्र जिनका और चांद सूर्य समान हैं | कुंडल जिनके और शरद् के नीझरने समान है हार जिन के सो पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र तुम्हारे बल्लभ पाए तुम्हारे वियोगकर मुख विषे अत्यन्त खेदको धरे हैं हे कमलनेत्र जैसे दिग्गज आवे तैसे आवे हैं यह बात सुन सीताने प्रथम तो स्वप्न समान वृतांत जाना फिर आप अतिश्रानंदको धरे जैसे मेघपटलसे चन्द्र निकसे तैसे हाथीसे उतर आए जैते रोहिणीके निकट चन्द्रमाणावे तैसे पाए तब सीता नाथको निकट पाया जान अतिहर्षकी भरी उठकर सन्मुख बाई कैसी है सीता धूरकर धूसर है
अंग और केश बिखर रहे हैं श्याम पडगए होठ जिसके स्वभाव कर कृशथी और पतिके वियोगकर ॥ अत्यंत कृश भई अब पति के दर्शन कर उपजा है अतिहर्ष जिसको प्राण की अाशा बंधी, मानों स्नेह की
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