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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण 1940 m तिष्ठे वहां गया मन्त्रियों से मण्डित जैसे देवों से संयुक्त इन्द्र होय, सो सर्य समान कांतिकर युक्त श्रावता भया तब उसको आवता देख विद्याधरी सीता सों कहती भई हे शुभे महा ज्योतिबन्त रावण पुष्पक विमान से उतर कर पाया जैसे ग्रीपम ऋतु में सूर्य की किरण से अातापको पाता गजेन्द्र सरोवरी के भोर अावे तैसे कामरूप अग्नि से ताप रूप भया श्रावे है यह प्रमद नामो उद्यान पुष्पों की शोभासे शोभित जहां भ्रमर गुजार करे हैं तब सीता बहुपिणी विद्याकर संयुक्त सवयको देख कर भयभीतभई मनमें विचारे है इसके बलका पार नहीं सो राम लक्षमण इसको धीरे घोरे जीतेंगे में मन्दभागिनी समको अथवा लक्षमण को अथवा अपने भाई भामंडलको मत हना सुन यह विचार कर ब्याकुल है चित्त जिसका कांपती चिन्ता रूप तिष्ठे है वहां रावण आया सो कहताभया हे देवी में पापी ने कपट करतुझे हरासो यह बात क्षत्री कुलमें उत्पन्न भए हैं जे धीर अति वीर तिनको सर्वथा उचित नहीं परन्तु धर्मकी गति ऐसी है मोहकर्म बलवान है और मैं पूर्व अनन्तवीर्य स्वामीके समीप ब्रत लिया था कि जो परनारी मुझे न इच्छे उसे मैं न हूं उर्वशी रंभा अथवा और मनोहर होय तो भी मेरे प्रयोजन नहीं यह प्रतिज्ञा पालते हुए मैं तेरी कृपाही की अभिलाषा करी परन्तु बलात्कार रमी नहीं हे जगत विषे उत्तम सुन्दरी अब मेरी भुजों कर चलाए जे बाण तिनसे तेरे अवलम्बन रामलक्षमण भिदे ही जान और तू मेरे संग पुष्पक विमानमें बैठी श्रानन्दसे बिहार कर मुमरुके शिखर चैत्य वृक्ष अनेक बन उपबन नदी सरोवर अवलोकन करती बिहारकर तब सीता दोनों हाथ कानोंपर धर गद्गद् बाणीसेदीन शब्द कहतीभई हे दशानन तू बडे कुल विषे उपजाहै तो यह करियो जो कदाचित संग्राममें तेरे और मेरे । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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