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पुराण
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कीतो क्या बात तथापि व्यायु कर्मने तुझे बचाया अब मैं तुझे कहूं सो सुन हे विद्याधरों के अधिपति मेरा भाई संग्राम में शक्ति से तैंने हना सो इस की मृत्यु क्रियाकर में तुझसे प्रभात ही युद्ध करूंगा तब रावण ने कही ऐसे ही करो, यह कह रावण इन्द्र तुल्य पराक्रमी लंका में गया कैसा है रावण प्रार्थनाभंग फरि को असमर्थ है, रावण मन में बिचारे है इन दोनों भाइयों में एक यह मेरा शत्रु अति प्रबल मा सो तो मैं हता यह विचार कasa हर्षित होय मंदिर में गया, कैयकनो योधा युद्ध से जीवते आए तिनको देख्ता भया कैसा है रावण भाइयों में है वात्सल्य जिस के फिरसुनी इन्द्रजीत मेघनाद पकड़े गए और भाई कुम्भकर्ण पकड़ा गया सो इस बृतांत से रावण प्रतिखेद खिन्न भया तिनके जीवने की आशा नहीं, यह कथा atara राजा श्रेणिक से कहे हैं हे भव्योत्तम अनेक रूप अपने उपार्जे कर्मों के कारण से जीवों के नाना प्रकार की साता श्रसाता होय हैं, देख इस जगत् में नानाप्रकार के कर्म तिन के उदय कर जीवों
नाना प्रकार के शुभाशुभ होय हैं और नाना प्रकार के फल होय हैं कैयक तो कर्म के उदय से र में नाश को प्राप्त होय हैं और कैइक बैरियों को जीत अपने स्थानक को प्राप्त होय हैं और किसी की विस्तीर्ण शक्ति विफल होय जाय है और बंधन को पावे है सो जैसे सूर्य्य पदार्थों के प्रकाशने में प्रवीण है तैसे कर्म जीवों को नाना प्रकार के फल देने में ग्रवीण है ।। इति बासठवां पर्व पूर्ण भया ।।
अथानन्तर श्रीराम लक्ष्मण के शोकसे व्याकुल भए जहां लक्षमण पड़ा था वहां चाय पृथिवी मंडल का मंडन जो भाई उसे चेष्टा रहित शक्ति से आलिंगित देख मूर्च्छित होय पड़े, फिर घनी बेर में सचेत होयकर महाशोक से संयुक्त दःखरूप अग्नि से प्रज्वलित अत्यंत विलाप करते भए, हा बत्स कम
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