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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म ॥ ११३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के योग कर तेरी यह दारुण अवस्था भई ष्याप दुर्लध्य समुद्र तर यहां आए, तू मेरीभक्ति में सदा सावधान मेरे कार्य निमित्त सदा उद्यमी शीघ्र ही मेरे से वचनालापकर कहां मौन घर तिष्ठे है तू न जाने मेरे में तेरे वियोगको एक क्षणमात्र भी सहिनेकी सक्ति नहीं उठ मेरे उरसे लग तेरा विनय कहांगया तेरे भुज गज के सूंड समान दीर्घ भुजवन्धनों से शोभित सो ये क्रियारहित प्रयोजन रहित होयगए भाव मात्र ही रह गए और तू माता पिता ने मोहि धरोहर सौंपा था सो अब में महानिर्लज्ज तिनको क्या उत्तर दूंगा अत्यन्त प्रेम के भरे अति अभिलाषी राम हा लक्ष्मण हा लक्ष्मण ऐसा जगत् में हितु तो समान नहीं इसभान्ति के वचन कहते भए लोक समस्त देखे हैं और महादीन भया भाई सों कहे हैं तू सुभटों में रत्न है तो बिना मैं कैसे जीऊंगा मैं अपना जीतव्य पुरुषार्थ तेरे बिना विफल मानूं हूं, पापों के उदय का चरित्र मैं ने प्रत्यक्ष देखा मुझे तेरे बिना सीतासे क्या और अन्य पदार्थों से क्या जिस सीताके निमित्त तेरे सारीखे भाई को निर्दय शक्तिसे पृथिवीपर पड़ा देखूं हूं सो तुम समान भाई कहां काम अर्थ पुरुषों को सब सुलभ हैं और और सम्बन्धी पृथिवी पर जहां जाईये वहां सब मिलें परन्तु माता पिता और भाई न मिलें हे सुग्रीव तैंने अपना मित्रपणा मुझे प्रति दिखाया अब तुम अपने स्थानक जावो और हे भामंडल तुम भी जावो अब मैं सीता की भी आशा तजी और जीवने की भी आशा तजी, अब मैं भाई के साथ निसंदेह अग्नि में प्रवेश करूंगा हे बिभीषण मुझे सीता का भी सोच नहीं और भाई का सोच नहीं परन्तु तुम्हारा उपकार हमसे कुछ न बना सो यह मेरे मनमें महाबाधा है जे उत्तमपुरुष हैं वे पहिले ही उपकार करें और जे मध्यम पुरुष हैं वे उपकार पीछे उपकार करें और जो पीछे भी न करें वे अधम For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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