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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६ देखें तुम्हारी हार हम क्रीड़ा में भी न देखसकें तो युद्धमें हार कैसे देख सकें और कोई एक कहती भई पुरा कि हे देव जैसे हम प्रेमकर तुम्हारा बदन कमल स्पर्श करे हैं तैसे वक्षस्थल में लगे घाव हम देखे तव पद्म अति हर्ष पावें और एक रौताणी अति नवोढ़ा हैं परन्तु संग्राम में पतिको उद्यमी देख प्रौढ़ा के भाव को प्राप्त भई और कोई एक मानवती घने दिनों से मान कर रही थी सो पतिको रणमें उद्यमी जान मोन तज पति के गले लगी और अति स्नेह जनाया रणयोग्य शिक्षा देती भई और कोई एक कमलनयनी भरतार के वदनको ऊंचा कर स्नेहकी दृष्टिकर देखती भई और युद्ध में दृढ़ करतीभई और कोई यक सामन्तनी पतिके वक्षस्थल में अपने नखका चिन्हकर होनहार शस्त्रों के घावनको मानो स्थानक करती भई इस भांति उपजी है चेष्टा जिनकेऐसी गणी रौताणी अपने प्रीतमोंसे नानाप्रकार के स्नेहकर वीररसमें दृढ़ करती भई तब महा संग्रामके करण हारे यांधा तिन से कहतेभर हे प्राणवल्लभ नर वेई हैं जेरल में प्रशंसा पावें तथा युद्ध के सन्मुख जीव तजें तिनकी शत्रु कीर्तिकरें हाथियों के दांतों में पग देय शत्रुवोंके घाव कर तिनकी शत्रु कीर्तिकरें पुण्य के उदय बिना ऐसा सुभटपना नहीं हाथियों के कुंभस्थल विदारणहारे नरसिंह तिनको जो हर्ष होय है सो कहिवेको कौन समर्थ है हे प्राण प्रियेक्षत्री का यही धर्म है जो कायरोंको न मारें शरणागतको न मारें न माखेि देंय जो पीठ देय उसपर चाट म करें जिस आयुध न होय उससों युद्ध न करें सो वालवृद्ध दीनको तजकर हम योधावों के मस्तक पर पढ़ेंगे तुम हर्षित रहियो हम युद्धमें विजयकर तुमसे चाय मिलेंगे इसभांति अनेक वचनोंकर अपनी अपनी शैताषियोंको धीर्य बंघाय योघा संग्राम के उद्यमी घरसे रणभूमिको निकसे कोई एक सुभटानी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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