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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परा. पर होती भई, जीवों के भाव नानाप्रकार के हैं राग देष के प्रभावसे जीव निजकम उपार्जे हैं सो जैसाउदय । होय है तैसे ही कार्य में प्रवृते हैं जैसे सूर्य का उदय उद्यमी जीवों को नाना कार्य में प्रवृताते है तैसे कर्म का उदय जीवों के नाना प्रकार के भाव उपजावे है ।। इति छप्पनवां पर्व संपूर्णम् ॥ ___अथानन्तर पर सेनाके समीपको न सह सके ऐसे मनुष्य वेशूरापने के प्रकट होने से अति प्रसन्न होय लड़ने को उद्यमीभए योधा अपने घरों से विदा होय सिंह सारिखे लंकासे निकसे कोईयक सुमट की नारी रणसंग्राम का स्तान्त जान अपने भरतार के उरसे लग ऐसे कहती भई हे नाथ तुम्हारे कुल की यही रीति है जो रणसंग्राम से पीछे न होंय और जो कदाचित् तुम युद्ध से पीछे होवोगे तो में सुनतेही प्राणत्याग करूंगी योधाओं के किंकरोंकी स्त्रियें कायरों की स्त्रियों को चिकार शब्द कहें इस समान और कष्ट क्या जो तुम छाती घाव खाय भले दिखाय पीछे श्रावोगे तो घाव ही आभूषणहै और टगया है बक्तर और कर हैं अनेक योषा स्तुति इसभान्ति तुमको में देखूगी तो अपना जन्मपन्य गिनंगी और सुवर्ण के कमलोंसे जिनेश्वर की पूजा कराऊंगी जे महायोधा रणमें सन्मुख होय मरणको प्राप्त होय तिनका ही मरण धन्यहै और जे युद्धसे परांमुख होंय धिक्कार शब्दसे मलिन भए जीवे हैं तिनके जीवने से क्या और कोईयक सुभटानी पतिसे लिपट इसभान्ति कहती भई जो तुम भले दिखाय कर | आवोगे तो हमारे पति हो और भागकर श्रावोगे तो हमारे तुम्हारे सम्बन्ध नहीं और कोईयक स्त्री अपने पतिसे कहती भई हे प्रभो तुम्हारे पुराने घाव अब विघट गए इसलिये नवे घाव लगे शरीर अति | शोभे वह दिन होय जो तुम बीरलक्षमीके वर प्रफुल्लित वदन हमारे प्रावो और हम तुमको हर्षसंयुक्त । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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