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योग्य है पर वस्तु प्रशंसा योग्य नहीं यह वचन विभीषण के सुन इन्द्रजीत रावण का पुत्र पिता के चित्त की वृति जान बिभीषण को कहला भया अत्यन्त मान का भरा और जिनशासनसे विमुख हे साम्रो तुमको कौनने पूछो और कौन ने अधिकार दिया जिससे इसभान्ति उन्मत्त की नाईं वचन कहो हो तुम अत्यन्त कायर हो और दीन लोकन की नाई युद्ध से डरो हो तो अपने घरके बिबरणमें बैठो कहा ऐसी बातों से ऐसी दुर्लभ स्त्रीरल पायकर मूढों की न्याई कौन तजे तुम काहेको वृथा वचन कहो जिस स्त्री के अर्थ सुभट पुरुष संग्राम में तीक्षण खड्ग की धारा से महा शत्रुवों को जीत कर वीर लक्ष्मण भुजोंकर उपार्जे हैं तिनके कायरता कहां कैसाहै संग्राम मानों हाथियों के समूहसे जहां अंधकार होय रहाहै और नाना प्रकार के शब्दों के समूह चले हैं जहां अति भयानक है यह वचन इन्द्रजीत के सुनकर इन्द्रजीत को तिरस्कार करता संता बिभीषण बोला रे पापी अन्यायमार्गी क्या तू पुत्र नामा शत्रु है तुझे शीत वाय उपजी है अपना हित नहीं जाने है शीत वायु कापीड़ा और उपाय छांड शीतल जलमें प्रवेश करे तो अपने प्राण खोवे और घरमें आग लगी और तू अग्नि में सूके ईंधन डारे तो कुशल कहां से होय अहो मोह रूप ग्राहकर तू पीडितहै तेरी चेष्टा विपरीतहै यह स्वर्ण मई लंका जहां देवविमानसे घर लक्ष्मणके तीक्षण बाणोंसे चूर्ण न होहि जाहिं तापहिले जनकसुता पतिव्रता को राम , पै पठावो सर्व लोक के कल्याण के अर्थ शीघही सीता का अर्पण योग्य है तेरे बापकुबुद्धि ने यह ।
सीता नहीं आनी है राक्षसरूप सर्पो का विल यह जो लंका उसमें विषनाशक जड़ी आनी है सुमित्रा | का पुत्र लक्ष्मण सोई भयो क्रोधायमान सिंह उसे तुम गज समान निवाखेि समर्थनहीं जिस के हाथ
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