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पद्म पुराण
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देहरा है और कोई जन्म लेय तो इन्द्र चक्रवर्त्यादिक पदको दैनहारा है उस धर्मका प्रभाव से ये भव्य जीव सूर्यसे भी अधिक प्रकाशको घरे हैं ।। इति चौवनवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर रामका कटक समोप आया जान प्रलयकाल के तरंग समान लंका क्षोभ को ग्राप्तभई और रावण कोपरूप भया और सामन्त लोक रणकथा करते भए जैसा समुद्रका शब्द होय तैसे वादित्रों के नादभए सर्व दिशा शब्दायमान भई और र भेरी के नाद से सुभट महा हर्ष को प्राप्त भए सब साजवाज सज स्वामी के हितु स्वामी के निकट आए तिनके नाम मारीच अमलचन्द्र भास्कर सिंहप्रभ हस्त मस्त इत्यादि अनेक योधा श्रायुधों से पूर्ण स्वामी के समीप आए ।
अथानन्तर लंकापति महायोधा संग्राम के निमित्त उद्यमीभया तब विभीषण रावणपैाए प्रणामकर शास्त्र मार्ग के अनुसार प्रति प्रशंसायोग्य सबको सुखदाई आगामी कालमें कल्याणरूप वर्तमान कल्याण रूप ऐसे वचन विभीषण रावण से कहता भया कैसा है विभीषण शास्त्र में प्रवीण महा चतुर निय प्रमाण का वेत्ता भाई को शान्त वचन कहता भया हे प्रभो तुम्हारी कीर्ति कुन्द के पुष्प समान उज्ज्वल महाविस्तीर्ण महाश्रेष्ठ इन्द्र समान पृथिवी पर विस्तर रही है सो पर स्त्री के निमित्त यह कीर्ति क्षणमात्र में क्षय होयगी जैसे सांझ के बादल की रेखा इसलिये । हे स्वामी ! हे परमेश्वर हम पर प्रसन्न होवो शीघ्र ही सीता को रामके समीप पठावो इसमें दोष नहीं केवल गुणही हैं सुखरूप समुद्र में आप निश्वय तिष्ठो हे विचक्षण जे न्याय रूप महा भोग हैं वे सब तुम्हारे स्वाधीन हैं और श्रीराम यहां आए हैं सो बडे, पुरुष हैं तुम्हारी तुल्य हैं सो जानकी तिनको पटाय देवो सर्वथा प्रकार अपनी वस्तु ही प्रशंसा
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