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पुराव
"अथानन्तर प्रभात ही हममान चलने को उद्यमी भए तप लंकासुन्दरी महा प्रेम की भरी ऐसे .६५७n || कहती भई हे कंत तुम्हारे पराक्रम न सहे जांय ऐसे अनेक मनुष्यों के मुख रावणने सुने होगे सो सुनकर
अतिखेद खिम्न भयो होयगा इसलिये तुम लंका काहे को जावो, तब हनुमान ने उसे सकल बृतान्त कहा कि रामने बानरवंशियों का उपकार किया सोसबों का प्रेरा रामके प्रति उपकार मिमित्त जाऊहूं हे प्रिये राम कासीता से मिलाप कराऊं राक्षसों का इन्द्र अन्याय मार्गसे हर ले गयाहै, सी सर्वथा में साऊंगा तब उसने कही तुम्हारा और रावण का वह स्नेह नहीं स्नेह नष्ट भया सो जैसे स्नेह कहिये 'सैल उसके नष्ट होयबे से दीपका. की शिखा नहीं रहे है तैसे स्नेह नष्ट होयवे से संबन्धका व्यवहार नहीं रहे है अबतक तुम्हारा यह व्यवहार था तुम जब लंका प्रावते तब नगर उछालतेगली गली में हर्ष होता मन्दिर घावों की पंक्ति से शोभित होते जैसे स्वर्ग में देव प्रवेश करें तैसे तुम प्रवेश करते, अब सवष प्रचण्ड दशानन तुम में देषरूप है सो निःसंदेह तुमको पकड़ेगा इसलिये जब तुम्हारे उनके संधि होय तब मिलना योग्यहै तब हनुमान बोले हे विचक्षणे जाय कर उसका अभिप्राय जाना चाहूं हूं
और वह सीतासती जगत् में प्रसिद्ध है और रूप कर अद्वितीय है जिसे देखकर रावणका सुमेरुसमान अचल मन चला है वह महापतित्रता हमार नाथ की स्त्री हमारी माता समान उसका दर्शन किया चाहूं हूं इसभांति हनूमान ने कही और सब सेना लंकासुन्दरी के समीप राखी और आप उस विवेकिनीसे बिदा होयकर लंका को सन्मुख भए। यह कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं। हे राजन् ! इस लोक में यह आश्चर्य है जो प्राणी क्षणमात्र में एक रस को छोड कर दूजे रस में आ जाय
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