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पद्म पुराण
॥६५॥
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कभी विरस को छोड़ कर रस में श्रा जाय कवहूं रस को छोड कर बिरस में श्रा जाय यह जगत यह कर्म की अद्भुत चेष्टा है संसारी सर्व जीव कम्मों के आधीन हैं। जैसे सूर्य दक्षणायन से उत्तरायण आ।वे तैसे प्राणी एक अवस्था से दूजी अवस्था में आवे ॥ इतिवावनवां पर्व समाप्तम् ॥
अथानन्तर गोतमस्वामी कहे हैं हे श्रेणिक वह पवनका पुत्र महाप्रभावक उदयकर संयुक्त थोडे ही सेवकों सहित निःशंक लंका में प्रवेश करता भया प्रथमही विभीषण के मंदिर में गया बिभीषण ने बहुत सम्मान किया फिर चगाएक तिष्ट कर परस्पर वार्ता कर हनुमान कहता भया कि रावण आधे भरत का पति सर्व का स्वामी उसे यह कहां उचित जो दलिद्र मनुष्य की न्याईं चोरी कर परस्त्री लावे जे राजा है सो मर्यादाके मूल हैं जैसे नदीका मूल पर्वत राजाही अनाचारी होयतो सर्व लोक में अन्याय की प्रवृति होय ऐसे चरित्रकिए राजा की सर्वलोक में निंन्दा होय इस लिए जगत के कल्याण निमित्त रावण को शीघ्र ही कहो न्यायको न उलंघे यह कहो हे नाथ जगतमें अपयश का कारण यह कर्म है जिससे लोक नष्ट हॉय सोन करना तुम्हारे कुल का निर्मल चरित्र केवल पृथिवी परही प्रशंसा योग्य नहीं स्वर्ग में भी देव हाथ जोड़ नमस्कार कर तुम्हारे बड़ों की प्रशंशा करे हैं तुम्हारा यश सर्वत्र प्रसिद्ध है तब विभीषण कहता भया में बहुत चार भाई को समझाया परन्तु मानें नहीं और जिस दिन से सीता ले आया उस दिनसे हमसे बात भी न करे तथापि तुम्हारे बचन से मैं फिर दबायकर कहूंगा परन्तु यह हठ उस से छूटना कठिन है और आज ग्याग्वां दिन है सीता निराहार है जलभी नहींलेय है तौ भो रावण को दया नहीं उपजी इस काम से विरक्त नहीं होय है ए बात सुनकर हनुमान को
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