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पण जिहा के अग्रभाग से रुधिर को उगलते ऐसे हजारों सर्प तिन के भयायक फण वे विकराल शब्दकरे हैं । ६- और विष रूप अग्नि के कण बरसे हैं विषरूप धूमका अन्धकार होयरहा है जो कोई मूर्ख सामन्तपणा के
मानसे उद्धतभया प्रवेशकरे उने मायामई सर्प ऐसे निगलें जैसे सरप मेंडकको निगले लंका के कोट का मंडल जोतिष चक्र से भी ऊंचा सर्व दिशों में दुलंघ और देखा न जाय प्रलयकाल के मेघ समान भया । नक शब्द कर संयुक्त और हिंसारूप ग्रन्थोंकी न्याई अत्यन्त पापकर्मियों से निरमाया उसे देख कर । हनुमान विचारताभया यह मायामईकोट राक्षसोंके नायने रचाहै सो अपनी विद्याकी चातुयता दिखाई।
है और अब में विद्यारल से इसे उपाड़ता हुवा राक्षसों का मद हरूं जैसे अात्मध्यानी मुनि मोह मद, ) को हरे तब हनुमान युद्ध में मनकर समुद्र समान जो अपनी सेना सो अाकाशमें राखी और आप विद्या । मई वक्तर पहिर हाथमें गदालेकर मायामई पूतली के मुख में प्रवेश किया जैसे राहु के मुख में चन्द्रमा प्रवेश करे और वा मायामई पूतली की कुक्षि सोई भई पत की गुफा अन्धकार कर भरी सो श्राप नरसिंहरूप तीक्षण नखोंकर विदारी और गदाके घातसे कोट चूरण किया जैसे शुक्लध्यानीमुनि निर्मल भावोंसे घातिया कर्मकी स्थिति चूरणकरे । ___ अथानन्तर यह विद्या महाभयंकर भंग को प्राप्तभई तब मेघकी ध्वनि समान ध्वनिभई विद्याभाग गई कोट विघट गया जैसे जिनेन्द्र के स्तोत्र से पाप कर्म विघट जाय तब प्रलयकाल के मेघ समान
भयंकर शब्द भया मायामई कोट विखरा देख कोट का अधिकारी वज्रमुख महा क्रोधायमान होय || शीघ्र ही स्थपर चद हनूमानपर विना विचार मारने को दौड़ा जैसे सिंह अग्नि की ओर दौडे जब
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