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पत्र
॥५५३५
चांडालका जन्म पाया एक समय मतिवर्धननामा प्राचार्य मुनियों में महातेजस्वी पद्मनी नगरी पाए सो बसंततिलकनामा उद्यानमें संघसहित विराजे और आर्यिकावोंकी गुरानी अनुधरा धर्म ध्यान में तत्परसो भी अार्थिकादियोंके संघसहित आई सो नगरके समीप उपवनमें तिष्ठी और जिस बनमें मुनि विराजें थे उसबनके अधिकारी माय राजासे हाथ जोड़ बिनती करतेभए हेदेव अागेको या पीछे को कहो संघ कौन तरफ जावे तब राजाने कही कि क्याबातहै वे कहतेभए उद्यानमें मुनि पाएहैं जो मने करें तो डरें जो नहीं मनेकरें तो तुम कोपकरो यह हमको बड़ा संकटहै स्वर्गके उद्यानसमान यह बन है अबतक काहूको इसमें आने न दिया परंतु मुनियोंका क्याकरें वे दिगम्बर देवोंकर न निवारे जावें हम सारखेकैसे निवारतब राजानेकही तुममतमनेकरोजहांसाधु विराजेसो स्थानकपवित्रहोयहै सो राजाबडी विभूतिसे मुनियों के दर्शनको गया वे महाभाग्य उद्यानमें विराजेथे बनकी रजसे धूसरे हैं अंगजिनके मुक्ति । योग्य जो क्रिया उससे युक्त प्रशांतहे हृदय जिनके कैयक कायोत्सर्ग धरे दोनों भुजा लुवांय खडे हैं । कैयक पदमासनवरे विराजे हैं बेला तेला चौला पंच उपवास दस उपवास पक्षमासादि अनेक उपवासों
से शोषाहै अंग जिन्होंने पठन पाठनमें सावधान भ्रमर समान मधुर, शब्द जिनके शुद्ध स्वरूप विषे. लगायाहै वित्त जिन्हों ने सोराजा ऐसे मुनियोंको दूरसे देख गर्न रहितहोय गजसे उतर सावधान होय सर्व मुनियों को नमस्कार कर प्राचार्य के निकट जाय तीन प्रदक्षिणादेय प्रणामकर पूछता भया हे नाय जैसी तुम्हारे शरीरमें दीप्ति है तैसे भोग नहीं तब प्राचार्य कहते भए यह कहां बुद्धि तेरी तू शूखीरको स्थिर जाने है यह बुद्धि संसारको बढ़ावन हारी है.जैसे हाथीके कान चपल तैसा
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