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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराव 1५२॥ चतुरनिकाय के देव दर्शन को पाऐ विधिपूर्वक नमस्कारकर यथा योग्य वैठे केवल ज्ञानके प्रतापसे केवली के निकट रात दिनका भेद न रहे भूमिगोचरी और वद्याधर केवलीकी पूजाकर यथा योग्य बैठे सुर नर विद्याधर सबही धर्मोपदेश श्रवण करते भये रामलक्षमणहर्षितचित्त सीता सहित केवलीकी पूजाकर हाथ जोड़ नमस्कारकर पूछतेभये हे भगवान असुरने पापको कौन कारण उपसर्ग किया और तुम दोनों में परस्पर अति स्नेह काहेसे भया व केवलीकी दिव्यध्वनि होतीभई। पद्मनीनामा नगरीमें राजाविजयपर्वत गुणरूप घान्यके उपजिवेका उत्तमचे। जिसके धारणीनामा स्त्री और अमृतसुर नामा दूत सर्व शास्त्रों में प्रवीण राज काज विषे निपुण लोकरीति को जाने और जिसको गुणही प्रिय उसके उपभोग नोमा स्त्री उसकी कुक्षि से उपजे उदित मुदित नामा दोय पुत्र व्यवहार में प्रवीण सो अमृतसुर नामा दूत को राजाने कार्य निमित्त बाहिर भेजा सो वह स्वामी भक्त मसुभूतिमित्र सहित चला वसुभूति पापी इस की स्त्री से आसक्त दुष्टचित्त सो सत्रि में अमृतसुर को खड्ग से मार नगरी में वापिस आया लोगों से कही मुझे वापिस भेज दिया है और उसकी स्री उपभोग से यथार्थ वृत्तान्त कहो तब वह कहती भई मेरे दोनों पुत्रों कोभी मार ताकि हम दोनों निश्चिन्त तिष्ठे सो यह वार्ता उदितकी बहूंने सुनी और सर्व वृत्तान्त उदितसे कहा यह बह सास के चरित्रको पहिले भी जानती थी इसको वसुभूति की बह ने समाचार कहे थे जो परदारा के सेवन से पतिसे विरक्त थी सो उदित ने सर्व वातोंसे सावधान होय मुदितको भी सावधान किया और वसुभूतिका पड़ग देख पिताके मरणका निश्चयकर उदितने बसुभूति को मारा सो पापी मरकर म्लेछकी योनि को प्राप्त भया ब्राह्मणथा सो कुशीलके और हिंसाके दोष से For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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