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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पप पुराण ॥५५४॥ जीतव्य चपलहै यह देह कदलीके थंभसमान असारहै और ऐश्वर्य स्वप्न तुल्यहै घर कुटम्ब पुत्र कलत्र बांधव सब असारहैं ऐसा जानकर इस संसारकी मायामें क्या प्रीति यह संसार दुःखदायकहै यह प्राणी अनेक बार गर्भवासके संकट भोगवे हैं गर्भवास नरक तुल्य महाभयानक दुर्गन्ध कृमिजालकर पूर्ण रक्त श्लेषमादिकका सरोवर महा अशुचि कर्दमका भराहै यह प्राणी मोहरूप अंधकारसे अन्धा भया गर्भवाससे नहीं डरे है धिक्कारहै इस अत्यन्त अपवित्र देहको सर्व अशुभकास्थानक क्षणभंगुर जिसका कोई रक्षक नहीं जीव देहको पोषे वह इसे दुःखदेय सो महाकृतग्न नसा जाल कर बेढ़ा चर्म से ढका अनेक रोगोंका पुंज राजा के आगमनसे ग्लानिरूप ऐसे देहमें जे प्राणी स्नेह करे हैं वे ज्ञान रहित अविवेकी हैं तिनके कल्याण कहांसे होयहै और इसशरीरविष इंद्रियचोर बसे हैं वेबलात्कार धर्मरूप धनको हरे हैं यह जीवरूप राजा कुबुद्धिरूपस्त्रीसो रमे हैं और मृत्यु इसको अचानक असा चाहे है मनरूप माता हाथी विषयरूप बनमें क्रांडा करे है ज्ञानरूप अंकुशसे इसे वशकर वैराग्यरूप थंभ से विवेकी बांधे हैं यह इंद्रियरूप तुरंग मोहरूप पताका को घरे पर स्त्री रूप हरित तृणों में महा लोभको धरते शरीररूप रयको कुमार्गमें पाडे हैं चित्तके प्रेरे चंचलता धरे हैं इसलिये चितको बश करना योग्य है. तुम संसार शरीर भोगोंसे विरक्तहोय भक्तिकर जिनराजको बारम्बार नमस्कार करो निरन्तर सुमरो जिससे निश्चयसे संसार खमुद्रको तिरो तप संयमरूप बाणोंसे मोहरूप शत्रुको हण लोक के शिखर अविनाशीपुरका अखंड राज्य करो निर्भय निजपुर में निवास करो यह मुनि के मुख से वचन सुन कर राजा विजयपर्वत मुबुद्धि राज्य तज मुनि भया और वे दूतके पुत्र दोनों भाई उदित मुदित जिनवाणी For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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