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रत्नादिक धनकर और गांय आदि पशुवाकर पूण सो अर्घबबर देश के म्लेच्छ महाभयंकर उन्होंने पाय मेरे देशको पीडाकरी धनके समूह लूटने लगे और देश में श्रावक और यतिका धर्म मिटने लगा सो। मेरे और म्लेच्छों के महा युद्ध भया उस समय राम आयकर मेरी और मेरे भाईकी सहायता करी दे | | म्लेच्छ जो देवों से भी दुर्जय सो जीते और रामका छोटाभाई लक्ष्मण इन्द्र समान पराक्रमका धरणहारा है और बड़े भाई का सदा आज्ञाकारी है महा विनय कर संयुक्त है वे दोनों भाई प्राय कर जो म्लेच्छों की सेना को न जीतते तो समस्त पृथिवी म्लेच्छमई होजाती वे म्लेच्छ महा अविवेकी शुभक्रियारहित लोकको पीडाकारी महा भयंकर विष समान दारुण उत्पात का स्वरूपही हैं सो रामके प्रसाद कर सब भाज गए पृथिवीका अमंगल मिटगया वे दोनों राजा दशरथ के पुत्र महा दयालु लोकों के हितकारी तिनको पायकर राजा दशरथ सुखसे सुरपति समान राज्य करे है उस दशरथके राज्य में महासंपदावान् लोक बसे हैं और दशरथ महा शूरवीर है जिसके राज्य में पवनभी किसीका कुछ हर न सके तो और कौन हरे राम लक्षमणने मेरा ऐसा उपकार किया तब मुझे ऐसी चिन्ता उपजी कि में इनका क्या प्रति उपकार करूं रात्रि दिवस मुझे निद्रा न पावती भई जिसने मेरे प्राण रोखे प्रजा राखी उस राम समान मेरे कौन मुझसे कभीभी कछु उनकी सेवा नबनी और उन्होंने बड़ा उपकारकिया तब में विचारता भया जो अपना उपकार करे और उसकी सेवा कछु न बने तो क्या जीतव्य कृतघ्न का जीतब्य तृणसमान है तब मैंने अपनी पुत्री सीता नवयौवन पूर्ण रोम योग्य जान रामको देनी विचारी तब मेरा सोच कछु इक मिटा मैं चिन्तारूप समुद्र में डूबाथा सो पुत्री नावरूपभई सो पुत्री दावरूप में सोच समुद्रसे निकसा राम
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