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पद्म
पुराण ॥४२
अहोभव्य जीव हो जिनवर को वारंवार प्रणाम करो वे जिनवर अनुपम गुण को धरे हैं और अनुषमहै । काया जिनकी और हते हैं संसारमई सकल कुकर्म जिन्होंने और रागादिकरूपजेमलतिनकररहितमहानिर्मल हैं और ज्ञानावरणादिक रूप जो पट तिनके दूर करनहारे पारकरकेको अति प्रवीणहैं और अत्यन्तपवित्र इसभान्ति राजा चन्द्रगति ने बीण बजाय भगवान की स्तुति करी तब भगवान के सिंहासन के नीचेसे। राजा जनक भय तज कर जिनराज की स्तुति कर निकसा महाशोभायमान तब चन्द्रगति जनकको देख। हर्षित भया है मन जिस का सो पछता भया तुम कौन हो इस निर्जन स्थानक विषे भगवान् । के चैत्यालय विषे कहां से आए हो तुम नागों के पति नागेन्द्र हो अथवा विद्याधरों के अधिपति हो हे मित्र ! तुम्हारा नाम क्या है सो कहो तब जनक कहता भया हे विद्याधरों के पति में मिथिला नगरी से आया हूं और मेरा नाम जनक है मायामई तुरंग मुझे लेअाया है जब यह समाचार जनक ने कहे तब दोनों प्रतिकर मिले परस्पर कुशल पूछी एक आसन पर बैठे फिर क्षणएक तिष्ठ कर जब दोनों आपस में विश्वास को प्राप्तभए तब चन्द्रगति और कथाकर जनक को कहते भए हे महाराजमें। बड़ा पुण्यवान जो मुझे मिथिला नगरी के पतिका दर्शन भया तुम्हारी पुत्री महा शुभ लक्षणों कर मण्डित है मैं बहुत लोकों के मुख से सुनी है सो मेरे पुत्र भामण्डल को देवो तुम से सस्कन्ध पाय मैं अपना परमउदय मानूंगा तब जनक कहतेभए हे विद्याधराधिपति तुमने जो कही सो सबयोग्यहै परन्तु मैंने मेरी पुत्री राजा दशरथ के बड़े पुत्र जो श्रीरामचन्द्र तिनको देनी करी है तब चन्द्रगति बोले काहे || से उनको देनी करी है तब जनक ने कही जो तुमको सुनिबे का कौतुक है तो सुनो मेरी मिथिलापुरी ||
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