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।।४२८॥
घन | जनक विचारता भया कि जो विजियार्थ पर्वत पर विद्याधर वसे हैं ऐसी में सुनता हूं सो ये विद्याधर हैं |
विद्याघरों की सेना के मध्य यह विद्याधरों का अधिपति कोई परम दीप्ति कर शोभे है असा चितवन जनक करे है उसही समय वह चन्द्रगति राजा दैत्यजाति के विद्याधरोंका स्वामी चैत्यालय में आय प्राप्त भया महा हर्षवन्त नम्रीभूत है शरीर जिस का, तबजनक उस को देख कर कछू इक भयवान् होय भगवान् के सिंहासनके नीचे बैठ रहा, और उस राजा चन्द्रगति ने भक्ति कर भगवान्के चैत्यालय में जाय प्रणाम कर विधिपूर्वक महा उत्तम पूजा करी और परमस्तुति करता भया फिर सुन्दर हैं स्वर जिस के जैसी बीणा हाथ में लेकर महाभावना सहित भगवान के गण गावतो भया सो कैसे गावे है सो सुनो, अहो भव्य जीव हो जिनेंद्र को आराधो, कैसे हैं जिनेंद्रदेव तीन लोक के जीवों को वर दाता और अविनाशी है सुख जिन के और देवों में श्रेष्ठ जे इन्द्रादिक उन कर नमस्कार करने योग्य हैं कैसे हैं वे इन्द्रादिक महा उत्कृष्ट जो पूजा का विधान उस में लगाया है चित्त जिन्होंने ग्रहो उत्तम जन हो श्री ऋषभदेव को मन वचन काय कर निरन्तर भजो कैसे हैं ऋषभदेव महाउत्कृष्ट हैं और शिवदायक हैं जिनके भजे से जन्म जन्म के किए पाप समस्त विलय होय हैं अहो प्राणी हो जिनवस्को नमस्कार करो कैसे हैं जिनवर महा अतिशय के धारक हैं कर्मों के नाशक हैं और परमगति जो निर्वाण उस को प्राव भए हैं और सर्व सुरासुर नर विद्याघर उन कर पूजित हैं चरण कमल जिनके और क्रोध रूप महाबैरी का भंगकरन हारे हैं में भक्तिरूप भया जिनेन्द्र को नमस्कार करूंहूं उत्तमलक्षण कर संयुक्तहै देह जिनकी औरविनय कर नमस्कार करे हे सर्व मुनियों के समूह जिनको वे भगवान् नमस्कार मात्रही से भक्तों के भय हरेहैं
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