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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४३१॥ पळ || महा तेजस्वी हैं यह वचन जसकके सुन चन्द्रगतिके निकट वर्ती और विद्याधर मलिनमुख होय कहतेभए ! अहो तुम्हारी बुद्धि शोभायमान नहीं तुम भूमिगोचरी अपंडित हो कहां वे रंक म्लेच्छ और कहां उनके जीतवेकी बड़ाई इसमें क्या रामका पराक्रम जिसकी एती प्रशंसा तुमने स्लेछोंके जीतबेकर करी रामका जो एता स्तोत्रकिया सो इसमें उलटी निन्दाहै अहो तुम्हारी वातसुने हांसी यावे है जैसे बालकको विषफल ही अमृत भासे और दरिद्रीको बपरी (बेर) फलही नीके लागें और काक सूकेबृक्ष में प्रीतिकरे यह स्वभावही दुर्निवार है अब तुम भूमिगोचरियों का खोटा सम्बन्ध तजकर यह विद्याधरों का इन्द्र राजा चन्द्रगति इससे सम्बन्ध करो कहां देवों समान सम्पदाकेधरणहारे विद्याधर और कहां वे रंक भूमिगोचरी सर्वथा अतिदुखित तब जनक बोलेखारा सागर अत्यन्त विस्तीर्ण है परन्तु तृषा हरता नहीं और वापि का थोड़ेही मिष्ट जल से भरी है सो जीवोंकी तृपा हरे है और अन्धकार अत्यन्त विस्तीर्ण है उसकर क्या और दीपक अल्प | भीहै परंतु पृथ्वीमकाश करे हे पदार्थोंकाप्रकटकरेहे और अनेक मातेहाथीजो पराक्रम न करसकेंसोअकेला केसरी सिंहका बालक करे हे ऐसे जब राजाजनकने कहा तब वे सर्व विद्याधर कोपवन्त होय अतिशब्द कर भूमिगोचरियोंकी निन्दा करतेभए, हो जनक वे भूमिगोचरी विद्याके प्रभावसे रहित सदा खेदखिन्त्र शूरवीरता रहित आपदावान तुम कहां उनकी स्तुति करोहो पशुओंमें और उनमें भेद क्या तुम में विवेकनहीं इसलिये उनकी कीर्ति करोहो तब जनक कहते भए हाय हाय बड़ाकष्टहै जो मैंने पाप कर्म के उदयकर बड़े पुरुषोंकी निन्दासुनी तीन भवन में विख्यात जे भगवान ऋषभदेव इंद्रादिक देवोंमें पूजनीक तिनका इक्ष्वाकु वंश लोकमें पवित्र सो क्या तुम्हारे श्रवणमें न आया तीनलोकके पूज्य श्री तीर्थकर || For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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