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पन्न
पुराश ॥१८॥
|| गुण तुम्हारे धन्य है रूप तुम्हारा धन्य है कांति तुम्हारी धन्य है आश्चर्यकारी बल तुम्हारा श्रद्धत दीप्ति तिहारी पद्धत शील अङ्कत तप त्रैलोका में जे अद्भुत परमाणु हैं तिन से सुकृत का अाधार तुम्हारा शरीर बनाहें जन्महीसे महा बली सर्व सामर्थ के धरनहारे तुम नव यौवन में जगतकी माया को तज कर परम शान्त भाव रूप जो अरहंत की दीक्षा उराको प्राप्त भए हो सो यह अद्भुत कार्य तुम सारिषे सत्पुत्रपोंकर ही बने है मुझ पापी ने तुम सारिखे सत्पुरुषों से अविनय किया सो महो पाप का बन्ध लिया धिकार है मेरे मनाचन कायको मैं पापी मुनिद्रोह में प्रवरता जिन मन्दिरोंका अविनई भया आप सारिखे पुरुषरत्न और मुझ सारिखे दुखुद्धि सो सुमेरु और सरसोंकासा अन्तरहै मुझमरतेकोापनेबाज प्राण दोए आप दयालु हम सारिखे दुर्जन तिन ऊपर क्षमाकरो इस समान और क्या में जिनशासनको श्रवण करूं हूं जान हूं देख हूं कि यह संसार असार है अस्थिर है दुःख भाव है तथापि में पापी विषयनसे वैराग्य को नहीं प्राप्त भया धन्य हैं वे पुण्यवान महापुरुष अल्प संसारी मोक्षके पात्र जो तरुण अवस्थाही में विषयों को तजकर मोक्षका मार्ग मुनिव्रत आचरें हैं इस भांति मुनिकी प्रस्तुति कर तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर अपनी निन्दा कर बहुत लज्जावान होय मुनिके समीप जो जिन मन्दिर थे वहां बन्दना को प्रवेश किया चन्द्रहास खडगको पृथिवी पर रख कर अपनी राणियों कर मण्डित जिनवर का आरचन करता भया भुजा में से नस रूप तांत कोढ़ कर बीण समान बजाता भया।
भक्ति में पूर्ण है भाव जिसका स्तुतिकर जिनेन्द्र के गुणानुवाद गावता भया हे देवाधिदेव लोका| लोक के देखने हारे नमस्कार हो तुमको लोक को उलंघे असा हैं तेज तुम्हारा । हे कृतार्थ हे
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