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पद्म
पुराण
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संयुक्त सुर असुर विद्याधर पूजाको यावे हैं कभी इस पर्वत के कम्पायमान होनेसे चैत्यालयों का भंग न होजाय ऐसा विचार अपने चरएका अङ्गुष्ठ ढीलासा दाबा रावण महाभाराक्रांत होय दवा बहुरूप बनाया था सो भंग भया महा दुःख कर व्याकुल नेत्रोंसे रक्त भरने लगा मुकट टूटगया और माथा भीग या पर्वत बैठगया रावण के गोड़े बिल गए जंघाभी बिलिगई तत्काल पसेवमें भीग गया और धरती पसेवकर गीली भई रावण के गात्र सकुच गए कछुवा समान होगया तब रोणे लगा इसही कारण से पृथिवी में राव कहा तक दशानन कहावे था इसके अत्यन्त दीन शब्द सुनकर इसकी राणी अत्यन्त विलाप करती भई और मन्त्री सेनापति लारके सर्व सुभट पहिले तो भ्रमकर बृथा युद्ध करणे को उद्यमी भयेथे पीछे मुनिका अतिशय जान सर्व श्रायुध डार दीए मुनिके काय बल ऋद्धिके प्रभाव से देव दुन्दुभी बजाने लगे और कल्पवृक्षों के फूलोंकी वर्षा भई उस पर भ्रमर गुञ्जार करते भये आकाश में देव देवी नृत्य करते भये गीतकी ध्वनि होती भई तब महा मुनि परम दयालु ने अंगुष्ठ ढीला किया। रावण ने पर्वत के तले से निकस बाली मुनिके समीप आय नमस्कार कर क्षमा कराई और जाना है। तपका बल । योगीश्वरकी वारम्बार स्तुति करता भया हे नाथ तुमने पहिलेही से यह प्रतिज्ञा करी हुई थी। कि जो मैं जिनेन्द्र मुनींद्र जिन शासन सिवाय किसीको भी प्रणाम न करूं सो यह सर्व उस सामर्थता का. फल है अहो धन्य है निश्चय तुम्हारा और धन्य यह तपका बल हे भगवान तुम योग शक्तिसे त्रैलोक्य। को अन्यथा करने को समर्थ हो परन्तु उत्तम क्षमा धर्मके योग से सबके दयालु हो किसीपर क्रोध नहीं हे प्रभो जैसी तपकर पूर्ण मुनि को विनाही यत्न परम सामर्थ होय है तैसी इन्द्रादिक के नहीं धन्य है।
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