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॥१०६
का मूलकारणहे विजयसिंहके और राक्षसवंशी बानवंशियोंके महायुद्धभया उससमय किहकन्धको कन्या लेगया और छोटे भाई अन्धक ने खड्ग से विजयसिंह का सिर काटा एक विजयसिंह के बिना उसकी सर्व सेना बिखरगई जैसे एक आत्मा बिना सर्व इन्द्रियों के समूह विघटित जांहि, तब राजा अशनिवेग विजयसिंह का पिता अपने पुत्रका मरण सुनकर मूर्खाको प्राप्त भया अपनी स्त्रियों के नेत्र के जल से सींचा है वक्षस्थल जिसका सो घनी बेर में मूळ से प्रबोधको प्राप्त भया पुत्र के बरसे शत्रुओंपर भया. नक आकार किया उस समय उसका आकार लोक देख न सके मानों प्रलयकाल के उत्पात का सूर्य उसके आकार को धरे है सर्व विद्याघरों को लार लेजाकर किहकन्धपुरकोघेरा।। नगरको घेरा जान दोनों भाइ बानरध्वज सुकेश सहित अशनिवेगसे युद्ध करनेको निकसे परस्पर महा युद्ध भया गदाओंसे शक्तियों से बाणों से पानों से सेलोंसे षड़गों से महा युद्ध भया तहां पुत्र के बधसे उपजी जो क्रोधरूप अग्नि की ज्वाला उससे प्रज्वलित जो अशनिवेग सो अन्धकके सनमुख भया तब बड़े भाई किहकन्धने बिचारी कि मेरा भाई अन्धक तो नव योवन है और यह पापी अशनिवेग महा बलवान है सो मैं भाई की मददकरूं तब किहकन्ध आया और अशनिवेग का पुत्र विदयुद्धाहन किहकन्धके सन्मुख आया सो किहकन्ध के और विद्युद्धाहन के महायुद्ध प्रवरता उस समय अशनिबेगने अन्धकको मारा सो अन्धक पृथिवी पर पड़ा जैसा प्रभातका चन्द्रमा कांति रहित होय तैसा अन्धक को शरीर कांति रहित होयगया
और किहकन्धने वियद्वाहनके वक्षस्थल पर शिलाचलाई सो वह मच्छित होय गिरा पुनः सचेत होय | उसने वही शिला किहकन्ध पर चलाई सो किहकन्ध मूळ खाय घूमने लगा सो लंकाक धनी ने सचेत
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