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पद्म किया और किहकन्ध को किहकुम्पुर ले आए तब किहकन्ध ने दृष्टि उघाड़ देखा तो भाई नहीं तब निकट
वर्तीयों को पूछने लगा मेरा भाई कहां है तब लोक नीचे होयरहे और राजलोक में अन्धक के मरणे ॥१०१
का विलापहुवा सो विलाप सुन किहकन्धभी विलाप करने लगा शोकरूप अग्नि से तप्तायमान हुवा है मन जिसका बहुत देर तक भाई के गुणका चितवन करतासंता शोक रूप समुद्र में मग्न भया हाय भाई मेरे होते संते तू मरण को प्राप्तभया मेरीदक्षिणभुजा भंगभई जो में एकक्षण तुझे न देखताथा तो महाब्याकुल होता था सो अब तुमविनप्राणको कैसे राखंगा अथवा मेरा चित्त वज्रका है जो तेरा मरण सुनकर भी शरीर को नहीं तजे है हे बाल तेरा वह मुलकना और छोटी अवस्थामें महावीर चेष्टा चितार चितार मुझको महा दुःख उपजे है इत्यादि महा विलापकर भाइ के स्नेहसे किहकन्ध खेद खिन्न भया तब लंकाके धनी सुकेशने तथा और बड़े२ पुरुषोंने किहकन्धको बहुतसमझाया कि धीर पुरुषोंको यह रंज चेष्टा योग्य नहीं यह क्षत्रियों का बीरकुल है सो महा साहस रूप है और इस शोक को पण्डितों ने बड़ा पिशाच कहा है कर्मों के उदय से भाइयोंका वियोग होय है यह शोक निरर्थक है यदि शोक कीए फिर
आगम होय तो शोक करिये यह शोक शरीर को शोखे है और पापोंका बन्ध करे है महा मोहका मूल है इसलिये इस बैरी शोक को तजकर प्रसन्न होय कार्य में बुद्धि धारो यह शनिवेग विद्याधर अति प्रल वैरी है अपना पीछा छोड़ता नहीं नाशका उपाय चितवे है इसलिये अब जो कर्तव्य होय सो विचारो वैरी बलवान होय तब प्रछन्न (गुप्त ) स्थान में कालक्षेप करिये तो शत्रुसे अपमानको नपाइये फिर केएक दिन में वैरी का बल घटे तब वैरी को दवाइये विमति सदा एक और नहीं रही है अपनी पाताल
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