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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ध्यान का विघ्न करणहारा संक्लेश भाव उपजा फिर मनमें विचारी कि मैं मुनि हूं मुझे उचित नाहीं । पुराण कि असा क्रोधकरूं कि एक मुष्टि प्रहारकर इस पापी पारधीको चूर्णकर डारूं मुनिके अष्टम स्वर्ग जायबेका पुण्य उपजा था सो कषाय के योग से क्षीण पुण्य होय मरकर ज्योतिषी देवभयो तहांसे चयकर तू विद्युत्केश विद्याधर भया और वह पारधी बहुत संसार भूमण कर लंका के प्रमद नामा उद्यानमें वानर भया सो तुमने स्त्री के अर्थ बाण कर मारा सो बहुत अयोग्य किया पशुका अपराध सामंतोंको लेना योग्य नाहीं वह बानर नवकार मन्त्रके प्रभाव से उदधिकुमार देव भया, ऐसा जानकर हे विद्याधरो तुम बैरका त्याग करो जिससे इस संसार में तुम्हारा भ्रमण होय रहाहै जो तुम सिद्धोंके सुख चाहो हो तो राग टेप मत करो सिद्धों के सुखों का मनुष्य और देवों से बरणन न होसके अनन्त अपार सुख है जो तुम मोनाभिलापीहो और भले आचार कर युक्तहो तो श्रीमुनि सुव्रतनाथकी शरण लेवो परम भक्तिसे यक्त इन्द्रादिक देवभी तिनको नमस्कार करे हैं इन्द्र अहमिंद्र लोकपाल सर्व उनके दासों के दासहें वे त्रिलोक । नाथ तिनकी तुम शरण लेय कर परम कल्याण को प्राप्त होवोगे वे भगवान ईश्वर कहिये समर्थ हैं सर्व अर्थ पूर्ण हैं कृत कृत्य हैं यह जो मुनिके वचन वेई भये सूर्यकी किरण तिनकर विद्युतकेश विद्याधरका मन कमलवत् फूलगया सुकेश नामा पुत्रको राज्य देय मुनि के शिष्य भए राजा महाधीर हैं सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्रका अाराधन कर उत्तम देव भए किंहकुपुर के स्वामी राजा महोदधि विद्याधर बानर बंशीयों के अधिपति चन्द्रकांत मणियों के महल ऊपर विराजे हुते अमृतरूप सुन्दर चर्चाकर इन्द्र समान । सुख भोगते थे तिनपै एक विद्याधर श्वेत वस्त्र पहरे शीघ जाय नमस्कार कर कहता भया कि हे प्रभो । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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