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राजा विद्युत्केश मुनि होय स्वर्ग सिधारे यह सुनकर राजा महोदधि ने भी भोग भाव से विरक्त होय जैन दीक्षा में बुद्धि परी और ये वचन कहे कि मेंभी तपोवन को जाऊंगा, ये वचन सुनकर राजलोक मन्दिर में विलाप करते भये सो विलापकर महल गुंजिउठा उन राजलोकों को शब्द वीण बांसुरी मृदंग की ध्वनि समान है और युवराजभी आयकर राजा से वीनती करते भये कि राजा विदुतकेशका और अपना एक व्यवहार है राजाने बालक पुत्र सुकेशको राज जो दीया है सो तिहारे भरोसे दियाहे सुकेश के राज्यकी दृढ़ता तुमको राखनी उचित है जैसा उनका पुत्र तैसा तिहारा इसलिये कैएक दिन आप बैराग्य न घारें आप नव योबन हो इन्द्र कैसे भोगों से यह निकंटक राज्य भोगो इस भांति युवराज ने बीनती करी और अश्रुपातकी वर्षा करी तौभी राजाके मनमें न आई और मन्त्री महा नयके वेतानेभी
अति दीनहोय बीनती करी कि हे नाथ हम अनाथहैं जैसे बेल वृक्षों से लगरहै तैसे तुम्हारे चरणसे लगि रहे हैंतुम्हारेमनमें हमारामन तिष्ठे है सो हमको छोड़िकर जाना योग्य नहीं इस भान्ति बहुत बीनती करी तौभी राजा ने न मानी और राणीमे बहुत वीनती करी चरणों में लोटगई वहुत अश्रुपातडारे राणी गुण के समहसे राजाकी प्यारीथी सो विरक्त भावसे राजाने नीरस देखी तब राणी कह है कि हे नाथ हम तुम्हार गुणोंकर बहुत दिनकी बंधी और तुमने हमको बहुत लड़ाई महालक्षमी समान हमको राखी अब स्नेह पाश तोड़ कहां जावोहो इत्यादिअनेक वातकरी सो राजाने चित्तमें न घरी और राजाक बड़े २ सामंतोंनेभी वीनती करी कि हे देव इस नवयौवनमें राज छोड़ कहां जावो सर्बकों मोहसे तजा इत्यादि अनेक स्नेह के वचन कहे राजाने किसीकी न सुनी स्नेह पाश तोड़ सर्व परिग्रहकात्यागकर प्रतिचंद्र पुत्रको राज्य देय श्राप
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