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पुरा
पक्ष के दुख से कंपायमान हैचिस जिसका स्वर्ग लोक में भी भोगाभिलाषी नभयाः मानों नास्कीयों की
पनि सुने है, सोलमें स्वर्ग के देव को छठे नरक लग अवधिज्ञान कर दी है. तीखे तस्कके विषे सबष के जीवको और संवक काजीवजो असुरकुमारदेव था उसे संबोषिसम्यक्रमाप्तकिया इश्रेणिक उत्तम जीयों से पर उपकार ही ने फिर स्वर्ग लोक से भस्तक्षेत्र में श्रीराम के दर्शन को आए पवन से भी शीघ्र गामी जो विमान उस में प्रारुट अनेकदेवों को संग लिये नाना प्रकारके क्स पहिो हार.माला मुकला. दिक कर मंडित शक्ति गदा साधन भी शवन्नी इत्यादि अनेक आयुधों को घरे गज सुरंग सिंह, इत्यादि अनेक वाहनों पर चढ़े मृदंग बांसुरी बीण इत्यादि अनेक वादिनों के शम्द-तिन कर वशों दिशा पूर्ण करते केवली के निकट माए देवों के बाहन गज तुरंग सिंहादिक नियंच नहीं देवों की विक्रिया है श्रीराम को हाय जीड सीस निवाय बारंबार प्रणाम कर सीता का जीव प्रत्येंद्र स्तुति करता भया । हे संसारसागर के तारक तुमने ध्यानरूप पबन कर ज्ञानरूप अग्नि दीप्त करी, संसार सपाक्त भाम किया
और शुद्ध लेश्या रूप: त्रिशूल कर मोहरिपु-हता, वैराग्यरूप बन कर दृढ़ स्नेहरूप प्रिजरा मण किया। हैं नाथ हे मुनीन्द्र हे भवसूदनसंसारख्य धन से जे डरे हैं दिनको सुम शाण हो इसर्वज्ञ सन कृत्य जास गुरुपाया है पायवे योग्य पद जिन्होंने हे प्रभो मेरी रक्षा को संसार के भ्रमण से प्रतिव्याकुल है बत्त । मेरा तुम अनादि निधन जिनशासम का रहस्य जान प्रवल तप कर संसार सागर से पार भए, हे । देवाधिदेव यह तुम को कहां युक्त जो मुझे भवन में तज आप अकेले विमल पद को प्रधारे, तब भमनाम् कहते भए हे प्रत्येन्द्र तू राग तजजे वैराग्य में तत्पर हैं तिन ही को मुक्ति है । रागी जीवा संसार में।
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