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। जीमों ने न पाया इसलिये अनन्त भव आहे यह सम्यग्दर्शन अभव्यों को अप्राप्य है और कल्पलल्प है। पुराण। जगत् में दुर्लभ है सकल में श्रेष्ठ है सो जोतू प्रात्मकल्याण चाहे है तो उसे अंगीकारकर जिसकर मोच
पाये उससे श्रेष्ठ और नहीं न हुवा न होयगा इसीकर सिद्ध भए हैं और होयगे जे अरहंत भगवान ने | जीवादिक नव पदार्थ भाखे हैं तिनकी हदश्रद्धा करनी उसे सम्यग्दर्शन कहिये इत्यादि बचनों कर रावण के जीव को सुरेन्द्र ने सम्यक् ग्रहण कराया और इसकी दशा देख विचारता भया जो देसो रावण के भव में इसकी कहां कांति थी महासुन्दर लावण्य रूप शरीर था सो अब ऐसा होयगया जैसा नवीन बन अग्नि कर दग्ध होयजाय जिसे देख सकल लोक याश्चर्य को प्राप्त होते सो ज्योति कहां गई, फिर
उसे कहता भया कर्मभूमि में तुमः मनुष्य भए थे सो इन्द्रियों के छुद्र सुख के कारण दुराचार कर ऐसे । दुःख रूप समुद्र में हो । इत्यादि प्रत्येन्द्र ने उपदेश के वचन कडे, तिन को सुन कर उसके सम्यक् दर्शन दृढ़ भया और मन में विचारता भया कर्मों के उदय कर दुर्गति के दुःख प्राप्त भए तिनको भोग यहाँ से छूट मनुष्य देह पाय जिनराज का शरण गहूंगा. प्रत्येन्द्र से कही अहो देव तुम मेरा बड़ा हित किया जो संम्यकुदर्शन में मुझे लगाया, हे प्रत्येन्द्र महाभारय अब तुम जावो, वहां अच्युतस्वर्ग मैं धर्म के फल से सुख भोग मनुष्य होय शिवपुर को प्राप्त होवो, सब ऐसा कहा तब प्रत्येन्द्र उसे समाधान रूप कर कर्मों के उदय को सोचते संते सम्यक दृष्टि वहां से उपर माया संसार । की माया से शंकित है अात्मा जिसका अर्हत सिद्ध साघु जिन धर्म के शरण विषे तत्पर है मन जिसे का तीन के पंच मेरु की प्रदक्षिणा कर चैत्यालयों का दशन कर नारकीयों
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