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पुराण
पद्य धर्मोपदेश देते जगत् को तारते भरतक्षेत्रमें तिष्ठे हैं नाम गोत्र वेदनी आयुका अंतकर परमधाम पधारेंगे और
तू विषय वासना कर विषम भूमि में पड़ा अबभीचेत ज्यू कृतार्थ होय, तब रावण का जोव प्रतिबोध को प्राप्त भया अपने स्वरूपका ज्ञान उपजा अशुभकर्म बुरे जाने मन में विचारता भया में मनुष्यभव पाय अणुबत महावत नपाराधे तिससे इस अवस्था को प्राप्त भया हाय हाय में व्याकिया जो श्रापको दु.ख समुद्र में डारा यह मोहका महात्म्य है जो जीव आत्महित न करसकें रावण प्रतेन्द्रको कहे हैं हे देव तुम धन्य । हो विषय की वासना तजी जिनवचनरूप अमृत को पीकर देवों के नाथ भए तर प्रत्येन्द्रने दयालु होयकर। कही तुम भय मत करो चलो हमारे स्थान को चलो ऐसा कह इसके उअब को उद्यमीभया तब रावण के जीवके शरीर की परमाणु विखर गई जैसे अग्नि कर माखन पिगलजाय काहू उपायकर इसे लेजायचे समर्थ न भया जैसे दर्पण में तिष्ठती छाया नग्रही जाय तब रावण का जीव कहता भया हे प्रभो तुम दयाल हो सो तुमको दया उपजेही परन्तु इनजीवोंनेपूर्वेजे कर्म उपार्जे हैं सिनका फल अवश्य भोगे हैं विषय रूप मांस का लोभी दुर्गति का आयु वांधे है सो आयु पर्यंत दुःख भोगवे है यह जीव कर्मों के प्राधीन इसका देव क्या करें हमने अज्ञान के योग से अशुभ कर्म उपार्जे हैं इनका फल अवश्य भोगबेंगे आप छुड़ायवे समर्थ नहीं तिससे कृपा कर वह उपदेश कहो जिसकर फिर दुर्गति के दुःख न पावें, हे दयानिधे । तुम परम उपकारी हो, तब देवने कही परमकल्याण का मूल सम्यकज्ञान है सो जिनशासन का रहस्य है । अविवेकियों को अगम्य है तीनलोक में प्रसिद्ध है अात्मा अमूर्तीक सिद्ध समान उसे समस्त परद्रव्यों। से जुदा जाने जिन धर्म का निश्चय करे यह सम्यकदर्शन कर्मों का नाशक शुद्ध पवित्र परमार्थ का मूल
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