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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५०१॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपश्चविंशतिका । होता है किंतु यत्किचित् बाह्य शुद्धिकेलिये ही होता है ॥२॥ चित्ते प्राग्भवकोटसंचितरजः सवंधिताविर्भवन्मिथ्यात्वादिमलव्यपायजनकः स्त्रानं विवेकः सताम् ॥ अन्यद्वारिकृतं तु जन्तुनिकरव्यापादनात्पापकृत्, नो धर्मो न पवित्रता खलु ततः काये स्वभावाशुचौ॥ अर्थः-पूर्वभवोंमें उपार्जन कियेहुए जो करोडोपाप उनके संबंधसे प्रकट होतेहए जो मिथ्यात्वादिक मल उनके नाशको करनेवाला सज्जनोंके चित्तमें जो विवेक है वही सान है किंतु इससे भिन्न जो जलसे कियाहुआ स्नान है व अनेकजीवोंके विध्वंस करनेवाला होनेसे पापका ही करनेवाला है क्योंकि खभावसे ही अपवित्र इस शरीरमें न तो स्नानसे ही पवित्रता हो सकती है और न धर्म ही हो सकता है। भावार्थः-शुद्धिका अर्थ निर्मलता है और निर्मलता उसीसमय हो सकती है जिससमय समस्त मलों | का नाश हो जावे जलसे कियाहुआ जो स्वान है उससे निर्मलता नहीं होती है किंतु मलोंकी (पापोंकी) ही उत्पत्ति होती है क्योंकि जलस्नानके होनेपर अनेक जीवोंका विध्वंस होता है और उससे पापकी उत्पत्ति होती है। किंतु सज्जनोंके चित्तमें जो हिताहितका विवेक है वही स्नान है क्योंकि वही स्नान सर्वभवों में उपार्जन कियेहुए जो करोड़ोंपाप उनपापोंसे उत्पन्नहुआ जो मिथ्यात्व आदिक मल उसमलका सर्वथा नाश करने वाला है इसलिये जो मनुष्य स्नानसे शुद्धि मानते है उनको चित्तमें जो हिताहितका विवेक यह विवेक ही परमशुद्धिका कारण स्नान है ऐसा भलीभांति समझना चाहिये ॥३॥ सम्यग्बोधविशुद्धवारिणि लसत्सद्दर्शनोमिबजे नित्यानंदविशेषशैत्यसुभगे निश्शेषपापद्रुहि ॥ सत्तीर्थ परमात्मनामनि सदा सानं कुरुध्वं बुधाः शुद्धयर्थं किमु धावत त्रिपथगामालाप्रयासाकुलः॥ अर्थः--भोभव्यजीवो जिसमें सम्यग्ज्ञानरूपी अत्यंत निर्मलजल मौजूद है तथा जिसमें देदप्यमान अनेक 1000०.......................०००००००००००००००००००००००००००० ॥५०॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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