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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ||५००॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । आत्मातीव शुचिःस्वभावत इति स्नानं वृथास्मिन् परे काय चाशुचिरेव तेन शुचितामभ्येति नो जातुचित् । स्नानस्योभयथेत्यभूद्धिफलता ये कुर्वते तत्पुनस्तेषां भृजल कीटकोटिहननात्पापाय रागाय च ॥ करना अर्थः- आत्मा तो स्वभावसे अत्यंत पवित्र है इसलिये इस आत्मा के पवित्रकरनेकेलिये स्नान व्यर्थही है और शरीर सर्वथा अपवित्रही है यह कदापि पवित्र हो नहीं सकता इसलिये इसशरीरके पवित्र करने केलिये भी वह स्नान बिना प्रयोजनका ही है अतः दोनों प्रकारसे स्नान विफलही है ऐसा सिद्धहुवा इसलिये ऐसा निश्चय होनेपर भी जो पुरुष स्नानको करते हैं उनमनुष्योंद्वारा कियाहुत्रा वह स्नान करोड़ों पृथ्वी काय के तथा जलकायके जीवोंके नाश होनेसे पापके तथा राग केलिये ही होता है ॥ भावार्थः—यह बातविचारकरने योग्य है कि मनुष्य जो स्नान करते हैं वे किसचीजकी शुद्धिकेलिये स्नान करते हैं । कहोगे यदि आत्माकी शुद्धि केलिये स्नान करते हैं तो उनका स्नान करना सर्वथा व्यर्थ ही है क्योंकि आत्मा स्वभावसेही अत्यंतशुद्ध है और जो स्वभावसे शुद्ध होता है उसको शुद्ध करनेवाले दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती यदि कहोगे कि शरीरकी शुद्धिकेलिये स्नान करते हैं तोभी स्नान करना सर्वथा निरर्थकही है क्योंकि जो पदार्थ सर्वथा अशुद्ध होता है वह कदापि शुद्ध हो नहीं सकता जिसप्रकार कोला कभी भी सफेद नहीं होसकता । शरीर सर्वथा अशुद्ध है इसलिये उसकी शुद्धता स्नानसे होनहीं सकती इसलिये स्नान शरीर तथा आत्मा दोनोंकेलिये सर्वथा विकलही है किंतु जो मनुष्य ऐसा समझकर भी स्नान करते हैं वे लोग पापका ही संचय करते हैं क्योंकि स्नान के करनेसे पृथ्वीकायके तथा जलकाय के जीवों का विध्वंस होता है और जीवोंके विध्वंससे पाप होता ही है यह बात सर्वसम्मत है । तथा स्नानके करनेसे राग भी बढ़ता है इसलिये मनुष्यों को यह कभी भी नहीं समझना चाहिये कि स्नान शरीर तथा आत्माकी शुद्धि के लिये For Private And Personal 00000000 ९ ५००॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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