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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ।।४५१॥ 00000000000 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । हुई मानों सेवामें आये हुए जो समस्तलोकके स्वामी देवेन्द्रादिक उनकी स्तुतिसे उत्पन्न हुई ईर्षासे, सुगंध से खै चेहुए जो भ्रमर उनका जो समूह उनके शब्दोंसे स्तोत्रोंको ही कररही हो इसलिये इसप्रकार समस्त पापों से रहित श्रीशांतिनाथ भगवान हमारी रक्षाकरो । भावार्थः – आश्चार्यवर उत्प्रेक्षा करते हैं कि जिससमय भगवान के ऊपर पुष्पवृष्टि होती है उससमय उसकी सुगंधिसे आगे हुए जो भ्रमर उनके जो गुंजारशब्द वे गुंजार शब्द नहीं हैं किंतु तीनोंलोकके पति देवेन्द्र नरेन्द्र धरणेन्द्र आकर भगवानकी स्तुति करते हैं उससमय उनकी स्तुतिकी ईर्षासे पुष्पवृष्टि भी भगवान की मानों तुति कररही है ऐसी मालूम होती है ॥ ४ ॥ खद्योतौ किमुतानलस्य कणिके शुम्राभ्रलेशावथ सूर्याचंद्रमसाविति प्रगुणितौ लोकाक्षियुग्मैः सुरैः ॥ तयैते हि यदग्रतोतिविशदं तद्यस्य भामण्डलं सोऽस्मान्पातु निरंजनो जिनपतिः श्रीशांतिनाथः सदा ॥ ५५ ॥ अर्थः- जिस श्रीशांतिनाथ भगवान के भामंडल के आगे सूर्य तथा चन्द्रमाको लोगोंके नेत्र तथा देव ऐसा मानते थे कि क्या ये सूर्य चंद्रमा दो खद्योत [ जुगनू] हैं अथवा अनिके दो फुलिंगे हैं वा सफेद मेघके ये दो टुकडे हैं, ऐसा जिस शांतिनाथ भगवानका भामंडल था ऐसे वे समस्तपापोंकर रहित श्रीशांतिनाथ - भगवान हमारी रक्षाकरो । भावार्थ:- जिस श्रीशांतिनाथ भगवानका भामंडल इतना देदीप्यमान था कि जिसके सामने अत्यंत प्रकाशमान सूर्यचंद्रमा भी जुगुनू तथा अभिके फुलिंगे और सफेद मेघके टुकड़ोंके समान जान पडते थे ऐसे वे समस्त कर्मों से पैदा हुई कालिमासे रहित श्रीशांतिनाथ भगवान हमारी रक्षाकरो ॥ ५ ॥ यस्याशोकतरुर्विनिद्रसुमनोगुच्छप्रसक्तैः वणऱ्हेगैर्भक्तियुतः प्रभोरहरहर्गायन्निवास्ते यशः ॥ For Private And Personal ॥ ४५१॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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