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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४५॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । यदि है तो शांतिनाथभगवान ही हैं कितु इनसे भिन्न न कोई समस्तपदार्थों का जाननेवाला है और न उत्कृष्ट तथा तीनोंलोकोंका पति ही है तथा समस्त तत्वोंको वर्णन करनेवाले इसी [भगवान] के वचन सज्जनोंको सम्मत हैं किंतु इनसे भिन्न किसीके वचन सम्मत नहीं है ऐसे वे समस्त कर्मोंकर रहित श्रीशांतिनाथभगवान सदा हमारी रक्षाकरो ॥२॥ दिव्यत्रीमुखपङ्कजैकमुकरपोलासिनानामणिस्फारीभूतविचित्ररश्मिरचिताननामरेन्द्रायुधैः। सच्चित्रीकृतवातवमनि लसत्सिंहासने यःस्थितः सोऽस्मान् पातु निरंजनो जिनपतिःश्रीशांतिनाथ सदा॥ अर्थ-जो श्रीशांतिनाथभगवान, देवांगनाओंके जो मुखकमल वेही हुए एकदर्पण उनमें देदीप्यमान जो नाना प्रकारके रत्न उनकी जो चारोओर फैलीहुई किरणें उनकरके बनाये हुए, तथा चारोओरसे मुड़ेहुए, ऐसे जो इन्द्र धनुष, उनसे चित्र विचित्र जो आकाश, उसमें देदाप्यमान सिंहासनमें विराजमान होते हुवे ऐसे वे समस्त पापोंकर रहित श्रीशांतिनाथभगवान सदा हमारी रक्षाकरो। भावार्थ:-जिससमय भगवानको देवांगना आकर नमस्कार करती हैं उससमय उनके भूषणोंके रत्नोंकी किरणोंसे चित्रविचित्र आकाश ऐसा मालूम पड़ता है मानों उसमें इन्द्रधनुष ही पडे हों तो इसप्रकार इन्द्र धनुषों के समान चित्रविचित्र आकाशमें जो शांतिनाथभगवान सिंहासनपर विराजमान होते हुवे ऐसे वे समस्तपापोंकर रहित श्रीशांतिनाथभगवान हमारी रक्षाकरो अर्थात् ऐसे शांतिनाथभगवानको मस्तकझुकाकर नमस्कार है ॥३॥ गंधाकृष्टमधुव्रतबजरुतैर्व्यापारिता कुर्वती स्तोत्राणीव दिवासुरैः सुमनसां वृष्टिर्यदग्रेऽभवत् ॥ सेवापातसमस्तविष्टपपतिस्तुत्याश्रयस्पर्धया सोऽस्मान पातु निरंजनो जिनपतिःश्रीशांतिनाथो जिनम्॥४॥ अर्थ-जिस श्रीशांतिनाथभगवानके आगे आकाशमें देवोंहारा कीहुई फूलोंकी वर्षा इसप्रकारसे होती 100000000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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