SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४२७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चस्थितिका । वापीका चपलता है इसलिये हे मातः इस हमारे बावदूकपने को क्षमा कीजिये क्योंकि आपमें हमारी अत्यंत भक्ति है । भावार्थः हे मातः जब आपकी स्तुति बडे २ वृहस्पति आदिक भी विद्वान नहीं कर सकते तब हम सरीखे मंदबुद्धियों की क्या कथा है ? अर्थात् हम तो आपकी स्तुति तुषमात्र भी नहीं कर सक्ते किंतु यह जो स्तुतिके व्याजसे हमने अपनी वाणीकी चपलता की है वह आपकी भक्तिके वश होकर की है क्योंकि आपमें हमारी विशेष भक्ति है अतः आप इस हमारे बावदूकपनेको क्षमा कीजिये ॥ ३१ ॥ इसप्रकार श्रीपद्मनंदिआचार्यविरचित श्रीपद्मनंदिपञ्चविंशतिकामें सरस्वति स्तवननामक अधिकार समाप्त हुआ । चतुर्विंशतितीर्थंकरस्तोत्रम् | स्वयंभूस्तोत्रम् | स्वयभुवा येन समुद्धृतं जगज्जडत्वकूपे पतितं प्रमादतः । परात्मतत्वप्रतिपादनोल्लसद्धचोगुणैरादिजिनः स सेव्यताम् ॥ अर्थः——जो जगत प्रमादके वश होकर अज्ञानरूपी कूर्वे में पडा था उस जगतको जिस स्वयंभू (अपने आप होनेवाले ) श्री आदिनाथ भगवानने पर तथा आत्माके स्वरूपको कहनेवाले मनोहर अपने बचनरूपी गुणों से उस अज्ञानरूपी कुंवेंसे बाहिर निकाला उन आदिनाथ भगवान की भो भव्य जीवो आप सेवा करो ॥ भावार्थः—जिसप्रकार कोई मनुष्य प्रमादी वनकर कूंवेंमें गिर पडे उस मनुष्यको कोई उत्तम मनुष्य रस्सोंसे बाहर निकाले तो जिसप्रकार कूपसे निकालनेवाले मनुष्य को वह कूवेंसे निकला हुआ मनुष्य बंडा For Private And Personal ||४२७॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy