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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४२६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । इसलिये यद्यपि मैं कैसा भी कवित्ताकरनेमें बज्र मूर्ख क्यों न हो तो भी आपको मेरे ऊपर कृपा ही करनी चाहिये क्योंकि यदि मैं चाहूं कि आपकी कृपाका कुछ न सहारा रखकर कबिला करने लगूं सो हो नहीं सक्ता क्योंकि कविताके करने में आपकी कृपाही कारण है अतः मेरे ऊपर प्रसन्न हो ॥ २९ ॥ इमामधीते श्रुतदेवतास्तुतिं कृतिं पुमात्र यो मुनिपद्मनंदिनः । स याति पारं कवितादिसद्गुणशबंध सिन्धोः क्रमतो भवस्य च ॥ अर्थः – जो पुरुष मुनिवर श्रीपद्मनंदि द्वारा की गई इस श्रुतदेवताकी स्तुतिरूपी कृतीको पढ़ता है वह पुरुष कविता आदिक जो उत्तमगुण उनका जो प्रबंध रूपी समुद्र उसके पारको प्राप्त हो जाता है तथा क्रमसे संसाररूपीसमुद्र के पारको भी प्राप्त हो जाता है । भावार्थ:-- ग्रंथकार श्रीपद्मनंदी आचार्य कहते हैं कि मैने बड़ी भक्ति से इस श्रुतदेवतास्तुतिरूपी कृतिका निर्माण क्रिया है जो सव्यजवि इस कृतिको पढ़नेवाला है वह भव्यजीव कविता आदि जितने गुण हैं उन समस्त गुणोंमें प्रत्रीण हो जाता है तथा क्रमसे वह संसारका भी नाश करदेता है अर्थात् इस श्रुतदेवताकी स्तुतिकी कृपा से मोक्षपदको प्राप्त होकर अव्याबाध सुखका भोगनेवाला हो जाता है इसमें किसीप्रकारका संदेह नहीं है ॥३०॥ कुंठास्तेऽपि बृहस्पतिप्रभृतयो यस्मिन् भवंति ध्रुवं तस्मिन् देवि तव स्तुतिव्यतिकरे मंदा नराः के वयम् । तद्वाक्चापलमेतदश्रुतवतामस्माकमम्ब त्वया क्षतव्यं मुखरत्वकारणमसौ येनातिभक्तिग्रहः ॥ अर्थः- हे देवि हे सरस्वति जिस आपके स्वचन के करनेमें बडे २ विहान वृहस्पति आदिक भी निश्चय से कुंठ अर्थात् मंदबुद्धि हो जाते हैं तब आपके स्तवन के करनेमें हम सरीखे मंदबुद्धियों की तो बात ही क्या है ? अर्थात् हम तो आपकी स्तुति कर ही नहीं सकते किंतु थोडे शास्त्र के जानकार हमारी यह ( स्तुति नहीं ) For Private And Personal ॥४२६॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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