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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४२२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । की बात में प्राप्तकरलेता है तब उनकी अपेक्षा अत्यंतसुलभ नृपत्व सौभाग्य आदि चीजोंका प्राप्तकरना उसके लिये क्या कठिन बात है ? ॥ २२ ॥ त्वदंघ्रिपद्मद्वय भक्तिभाविते तृतीयमुन्मुलति बोघलोचनम् । गिरामधीशे सह केवलेन यत्समाश्रितं स्पर्धमिवेक्षतेऽखिलम् ॥ अर्थः-- हे मातः सरस्वति जो भव्यजीवमनुष्य आपके दोनों चरण कमलोंकी भक्ति तथा सेवाकरता है उस मनुष्य के तीसरा सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्र प्रकट होता है जो सम्यग्ज्ञानरूपीनेत्र केवलज्ञान के साथ इर्षा करकेही मानो समस्तपदार्थोंको देखता जानता है ऐसा मालूम पड़ता है । भावार्थः — सरस्वतीकी कृपासे जीवोंको श्रुतज्ञानकी प्राप्ति होती है और उसश्रुतज्ञानसे केवलज्ञान के समान समस्तपदार्थ जानेजाते हैं भेद इतनाही है कि केवलज्ञानतो पदार्थोंको प्रत्यक्षरूपसे जानता है क्योंकि केवल आत्माकी सहायतासे होनेवाला केवलज्ञान प्रत्यक्षज्ञान कहा गया है । तथा श्रुतज्ञान पदार्थोंको परोक्षरूपसे जानता है क्योंकि वह मनकी सहायतासे होता है इसलिये वह परोक्ष ज्ञान कहागया है किंतु पदार्थों के जाननेमें दोनों ज्ञान है समानही । इसलिये आचार्यवर स्तुतिकरते है । कि हे मातः जो मनुष्य आपके दोनों चरणकमलोंका भक्त है उसमनुष्यको श्रुतज्ञानकी प्राप्ति होती है और उसश्रुतज्ञानसे वह मनुष्य केवल ज्ञान केसमान समस्तपदार्थोंको भली भांति जानता है ॥ २३ ॥ त्वमेव तीर्थं शुचिबोधवारिमत्समस्तलोकत्रयशुद्धिकारणम् । त्वमेव चानंदसमुद्रवर्धने मृगांकमूर्तिः परमार्थदर्शिनाम् ॥ अर्थः--हे मातः सरखति सम्यज्ञानरूपीजलसे भराहुवा तथा समस्त लोकोंकी शुद्धिका कारण तू ह For Private And Personal ॥४२२॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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