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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ४२१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिषश्चविंशतिका । चौदह पूर्वरूपीजो कमल उनकरके शोभित है और गणधररूपी जो हंसों का समूह उसकरके सेवित हैं इसलिये तू इस संसार में किसको उत्तम हर्षके करने वाली नहीं है ? भावार्थः---जो कमलिनी उत्तमसरोवरमें उत्पन्न हुई है और जिसके चारोंओर भांति २ के कमल शोभा बढ़ा है तथा अत्यंतमनोहरहंसों का समूह जिसकी सेवाकर रहा है ऐसी कमलिनी जिसप्रकार सर्वोकेचित्तोंको प्रसन्न करनेवाली होती है उसीप्रकार हेमातः आपभी जिनेश्वररूपी उत्तम सरोवरसे पैदा हुई हो अर्थात् आपको भी केवली भगवानने प्रगटकिया है तथा आप ग्यारह अंग चौदह पूर्वको धारण करने वाली हो और बड़े २ गणधर आपकी सेवा करते हैं फिरभी आप मनुष्यों के चित्तोंको क्यों नहीं प्रसन्नताकी करनेवाली होंगी ? अर्थात् अवश्यही मनुष्य आपको सुनकर प्रसन्न होंगे ॥ २१ ॥ परात्मतत्वप्रतिपत्तिपूर्वकं परं पदं यत्र सति प्रसिद्ध्यति । कियत्ततस्ते स्फुरतः प्रभावतो नृपत्वसौभाग्यवरांगनादिकम् ॥ अर्थः — हेमातः सरखति जब आपकी कृपासे परमात्मतत्वका जो ज्ञान उसज्ञान पूर्वक परमपद ( मोक्ष पद ) की सिद्धि होजाती है तब आपके देदीप्यमान प्रभावके सामने राजापना, सौभाग्य तथा उत्तमस्त्री आदिकी प्राप्ति क्या चीज है ? भावार्थः — यद्यपि संसारमें राजापना तथा सौन्दर्य और उत्तमस्त्री आदिकी प्राप्ति भी अत्यंत कठिन है किन्तु हे मातः आपके देदीप्यमानप्रभाव के सामने इनकी प्राप्ति कोई कठिन नहीं है अर्थात् जिसके ऊपर आपकी कृपा है वह भाग्यशाली विनाही परिश्रमसे इनपदार्थोंको प्राप्त करलेता है क्योंकि सबसे कठिन परात्मतत्वका ज्ञान तथा मोक्षपदकी प्राप्ति है जब मनुष्य आपकी कृपासे परमात्मज्ञानको तथा मोक्षपदको भी वात For Private And Personal ॥। ४२१ ।।
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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