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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३६६॥ ००००.....००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपश्चविंशतिका । किंतु अपने बाणोंको योग्य न समझकर कामदेव अपने फूलोंके वाणों को फैंकरहा है, क्योंकि संसारमें यहबात देखने में भी आती है कि समयके ऊपर जो चीज काम नहीं देती है उसको मनुष्य फिर छोड़ ही देता है ॥२७॥ एस जिणो परमप्पा णाणोण्णाणं सुणेह मावयणं तुह दुंदुही रसंतो कहइव तिजयस्स मिलियस्स ।। एप जिनः परमात्मा नान्योऽन्येषां शृणुत मावचनम् तव दुंदुभिःरसन् कथयति इव त्रिजगत: मिलितस्य । अर्थ:-हे भगवन् वजतीहुई जो आपकी दुंदुभि (नगाड़ा) वह तीनोंलोकको इकहाकर यह बात कहती है कि हे लोगो यदि वास्तविक परमात्मा है तो भगवान आदिनाथ ही हैं किंतु इनसे भिन्न परमात्मा कोई भी नहीं इसलिये तुम इनसे अतिरिक्त दूसरेका उपदेश मत सुनो इन्ही भगवानके उपदेशको सुनो। भावार्थ:-मंगलकालमें जिससमय आपकी दुंदुभि आकाशमें शब्दकरती है अर्थात् बजती है उससमय उसके वजनेका शब्द निष्फल नहीं है किंतु वह इसवातको पुकार २ कर कहती है कि हे भव्यजीवो यदि तुम परमात्माका उपदेश सुनना चाहते हो तो भगवान श्रीआदिनाथका दियाहुआ ही उपदेश मुनो किंतु इनसे भिन्न जो दूसरे २ देव हैं उनके उपदेशको अंशमात्र भी मत सुनो क्योंकि यदि परमात्मा हैं तो श्रीआदीश्वर भगवान ही है किंतु इनसे भिन्न लोकमें दुसरा परमात्मा नहीं ॥ २८ ॥ रविणो संतावयरं ससिणो उण जडयाअरं देव संतावजडत्तहरं तुम्हच्चिय पह पहावलयं ॥ रवे: संतापकरं शशिनःपुन: जडताकरं देव संतापजडत्वहरं तवार्चित प्रभो प्रभावळयम् ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀ ܀܀܀ ६६॥ १७.१ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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