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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir ३६५ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपश्चविंशतिका । कतलोकलोचनोत्पलहर्षाणि सुरेशहस्तचालितानि तब देव शरचनशधरकिरणकतानि इव चमराणि ॥ अर्थः-जिन चमरोंके देखनेसे समस्तलोकके नेत्ररूपी कमलोंको हर्ष होता है और जिनको बड़े २ इंद्र ढोरते हैं ऐसे हे जिनेंद्र आपके चमर शरदऋतुके चंद्रमाकी किरणोंसे बनाये गये हैं ? ऐसा मालूम होता है। भावार्थः-और ऋतुकी अपेक्षा शरदऋतुके चंद्रमाकी किरण बहुत स्वच्छ तथा सफेद होती है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि हे भगवन् आपके चमर इतने स्वच्छ तथा सफेद हैं जोकि ऐसे मालूम होते हैं मानों शरदकालीन चंद्रमाकी किरणों से ही बनाये हुए हैं और जिनको देखनेमात्रसे समस्तलोकके नेत्रोंको आनंद होता है तथा जिनको बड़े इंद्र आकर ढोरते हैं ॥२६॥ विहलीकयपंचसरो पंचसरो जिण तुमस्मि काऊण अमरकयपुप्पविहिछलइव वहु मुअइ कुसुमसरो। विफळीकृत्तपंचशरः पंचशरो जिन त्वयि कृत्वा अमरकृतपुष्पवृष्टिच्छलाइव वहून् मुंचति कुसुमारान् ।। अर्थः- हे भगवन् हे जिनेंद्र जिस कामदेवके आपके सामने पांचोंबाण विफल हो गये हैं ऐसा वह | कामदेव, देवोंकर कीहुई जो आपके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा उसके व्याजसे पुष्पोंके वार्णोका त्यागकर रहा है ऐसा मालूम है। भावार्थः-आपके अतिरिक्त जितनेभर देव हैं उनको वाण मार २ कर कामदेवने वशमें करलिया किंतु हे प्रभो जब वही कामदेव अपने वाणोंसे आपको भी वशकरने आया तव आपके सामने तो उसके वाण कुछकरही नहीं सकते थे । इसलिये उसकामदेवके समस्तवाण आपके सामने विफल होगये इसलिये ऐसा मालूम होता है कि जिससमय देवोंने आपके ऊपर फूलोंकी वर्षा की उससमय वह फूलोंकी वर्षा नहीं थी ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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