________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२१९.
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
पद्मनन्दिप विंशतिका ।
अर्थः—समस्तदोषोंकर रहित सूर्य के प्रतिविम्ब के समान मुनीश्वरोंका मन निरालम्बमार्गमें ही गमन करत करता है तथा निरालम्बमार्गमें गमन करने के कारण वह समस्त अंधकारको दूर करदेता है ।
भावार्थः — जिसप्रकार सूर्य आकाशमें गमन करता है और जब वह वादलोंके समूहसे ढका नहीं जाता तथा राहुसे ग्रसा नहीं जाता उससमय वह समस्त अंधकारको नाश करदेता है उसीप्रकार मुनियोंका चित्त जिससमय ममस्तदोषोंकर रहित होता है तथा जिसमें कोई अवलम्बन नहीं ऐसे मार्गमें अर्थात् निर्विकल्प मार्ग में गमन करता है उससमय वह मुनियों का चितभी समस्त अज्ञानादि अंधकारको दूरकरदेता है ॥ ३९ ॥ अपने चैतन्यस्वरूपको देखनेवाला योगी सिद्ध होता है इसबातको आचार्य समझाते हैं । संविच्छिखिना गलिते तनुम्षाकर्ममदनमयवपुषि
स्वमिव खं चि पश्यन् योगी भवति सिद्धः ॥ ४० ॥
अर्थः- सम्यग्ज्ञानरूपी जो अभि उससे जिससमय शरीररूपी जो मूषा, उसमें जो कर्मरूपी मोम स्वरूप शरीर, वह पिघलकर निकलजाता है उससमय जो योगी आकाशके समान अपने चैतन्यरूपको देखता है वहयोगी सिद्धहोता है । भावार्थ:- एक मिट्टीका मनुष्याकार पात्र बनायाजाय तथा उसके भीतर मोम भरदियाजाय और पीछे वह आंचसे तपायाजाय उससमय जिसप्रकार उसमोम के निकलजानेपर उसमूषामें मनुष्याकार आकाशके प्रदेश रहजाते है उसीप्रकार यह शरीर तो मूषा है और कर्म मोम है और सम्यग्ज्ञानरूपी अग्नि है इनमेंसे जिससमय सम्यग्ज्ञानरूपी अभिसे कर्म सर्वथा नष्टकर दियेजाते हैं उससमय जोकुछ उसशरीर के भीतर अमूर्तीकप्रदेश रहजाते हैं वे आत्मा के प्रदेश हैं अर्थात् उन्हीका नाम आत्मा है इसलिये जो मनुष्य उस आत्माका ध्यान करते हैं वे सिद्ध पदको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनको नरक आदि गतियों में भ्रमण नहीं करना पड़ता ।
For Private And Personal
॥३१९॥