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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३१८ पचनन्दिपञ्चविंशतिका। समय भी काँसे बंधाहुआ है यदि अब भी इसको वशमें करले तो कर्मोंसे तू बंध नहीं सकता इसमें कुछ भी संदेह नहीं इसलिये तुझे मनको अवश्यही बांधना चाहिये ॥ ३७॥ मनको इसरीतिसे समझाना चाहिये नृत्वतरोविषयसुखच्छायालाभेन किं मनःपान्थ भवदुःखक्षुत्पीडित ? तुष्टोऽसि गृहाण फलममृतम् ॥ ३८॥ अर्थः-" संसारका दुःखरूप जो क्षुधा उससे दुःखितहुआ अरे मनरूपी बटोही" तू क्यों मनुष्यरूपी वृक्षस विषयसुखरूपी छाया के लाभसे संतुष्ट है, । अमृतफलको गृहणकर । भावार्थ:-जिसप्रकार कोई रस्तागीर अत्यंत बुभुक्षित होकर वृक्ष के नीचे बैठे और उसवृक्षपर लगेहुए फल खानेका प्रयत्न न करता हो तो कोई हितैषी मनुष्य वहां आकर उसको इसरारीतसे समझावे कि अरे भाई तू इसवृक्षकी छायामात्रके लाभसे क्यों संतुष्ट होरहा है इसवृक्षपरसे उत्तमफलों को तोड़कर उनको खा जिससे तेरी भूखकी शान्ति होवे उसीप्रकार आत्मा मनको समझाता है कि अरे मन तू संसारके दुःखोंसे पीड़ितहुआ इसमनुष्यजन्ममें इन्द्रियोंके विषयों के लाभसे ही क्यों वृथा संतुष्ट होरहा है अरे इसमनुष्यजन्मसे ही प्राप्त होनेवाले अमृतरूपी फलको प्राप्तकर, अर्थात् जिसमें किसीप्रकारका न तो जन्म है और न मरण है ऐसे उसमोक्षपदकी ओर दृष्टिलगा क्योंकि विषयोंके लाभसे सन्तुष्टहो कर तू संसारमें ही भटकैगा और नानाप्रकार के दुःखोंको उठावेगा इसमें किसीप्रकारका संदेह नहीं है ॥ २८ ॥ मुनियोंका चित्त निरालम्बमार्गकाही अवलम्बन करता है इसबातको आचार्य समझाते हैं। स्वान्तं ध्वान्तमशेषं दोषोज्झितमर्कविम्बमिव मार्गे विनिहन्ति निरालम्बे संचरदनिशं मुनीशानाम् ॥ ३९॥ २००००००००००००००००००००००००००००००००००००००.00000000.00AMATA For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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