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॥१९॥
पअनन्दिपञ्चविंशतिका । पड़े। तथा मरकर नरक गया । अचार्य कहते हैं कि एक २ व्यसनके सेवनसे जब इन मनुष्योंकी ऐसी बुरी दशा हई तथा ये नष्टहवे तब जो मनुष्य सातों व्यसनोंका सेवन करनेवाला है वह क्यों नहीं नष्ट होगा ? इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे किसी भी व्यसनके फन्देमें न पड़े ॥ ३१॥
नपरमियन्ति भवन्ति व्यसनान्यपराण्यपि प्रभूतानि ॥
त्यत्वा सत्पथमपथप्रवृत्तयः क्षुद्रबुद्धीनाम् ॥ ३२ ॥ अर्थः-आचार्य महाराज और भी उपदेश देते हैं कि जिन व्यसनोंका ऊपर कथनकियागया है वे ही व्यसन हैं ऐसा नहीं समझना चाहिये किन्तु और भी व्यसन हैं वे यही हैं अल्पबुद्धी मिथ्यादृष्टियोंकी श्रेष्ट मार्गको छोड़कर निकृष्टमार्गमें प्रवृत्ति हो जाना इसलिये जीवोंको चाहिये कि वे व्यसनोंकी रक्षाकलिये निकृष्ट मागों में प्रवृत्ति न करै ॥ ३२ ॥
. और भी आचार्य व्यसनोंका दोष दिखाकर निषेध करते हैं। सर्वाणि व्यसनानि दुर्गतिपथा स्वर्गापवर्गार्गला वज्राणि व्रतपर्वतेषु विषमाः संसारिणां शत्रवः । प्रारम्भे मधुरेषु पाककटुकेष्वेतेषु सद्धीधनैः कर्तव्या न मतिर्मनागपि हितं वाञ्छद्भिरत्रात्मनः ॥३३॥
जिन मनुष्योंकी बुद्धि निर्मल है तथा जो अपनी आत्माका हित चाहते हैं उनको कदापि व्यसनोंकी ओर नहीं झुकना चाहिये क्योंकि ये समस्तव्यसन दुर्गतिको लेजानेवाले हैं तथा स्वर्गमोक्षके प्रतिबंधक हैं और समस्तवतोंके नाश करनेवाले हैं। तथा प्राणियोंके ये परम शत्रु हैं। तथा प्रारंभ में मधुर होनेपर भी अंतमें कटु है इसलिये इनसे स्वप्नमें भी हितकी आशा नहीं होती ॥ ३३ ॥
आचार्य और भी उपदेश देते हैं। मिथ्यादृशां विसदृशां च पथच्युतानां मायाविनां व्यसनिनां च खलात्मनां च ।
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