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पचनन्दिपचविशीतका।
शार्दूलविक्रीड़ित । धिक्तं पौरुषमासतामनुचितास्ताबुद्धयस्तेगुणा माभून्मित्रसहायसम्पदपि सा तजन्म यातु क्षयम् । लोकानामिह येषु सत्सु भवति व्यामोहमुद्राङ्कितं स्वमेऽपि स्थितिलवनात्परधनस्त्रीषु प्रसक्तं मनः ॥३०॥
अर्थः-जिन पौरुष आदिके होते सन्ते अपनी स्थितिको उल्लंघन कर मोहसे खप्नमें भी परस्त्री तथा पर धनमें मनुष्योंका मन आसक्त हो जावे ऐसे उस पौरुषकेलिये धिक्कार हो तथा वह अनुचित बुद्धि भी दूर रहो तथा वे गुण भी नहीं चाहिये और ऐसी मित्रोंकी सहायता तथा संपत्तिकी भी आवश्यकता नहीं ।
भावार्थः--जागृत अवस्थाकीतो क्या बात ! जिन पौरुष आदिके होते संते मनुष्योंका चित्त स्वप्नमें भी यदि परस्त्री में आसक्त हो जावे तो, ऐसे पौरुष आदिकी कोई आवश्यकता नहीं इसलिये भव्यजीवों को कदापि परस्त्रीमें चित्त नहीं लगाना चाहिये ॥ ३ ॥
अब आचार्य इसबातको दिखाते हैं कि किन २ को क्या २ जूवा आदि खेलनेसे हानि उठानी पड़ी। द्यूताद्धर्मसुतः पलादिह बको मद्याद्यदोनन्दनाश्चारुः कामुकया मृगान्तकतया स ब्रह्मदत्तो नृपः । चौर्यत्वाच्छिवभूतिरन्यवनितादोषाद्दशास्यो हठादेकैकव्यसनोद्धता इति जनाः सर्वैर्न को नश्यति॥३१॥
अर्थः-जूवासे तो युधिष्ठिरनामक राजा राज्यसे भ्रष्ट हुए तथा उनको नानाप्रकारके दुःख उठाने पड़े तथा मांसभक्षणसे वक नामका राजा राज्यसे भ्रष्ट हुआ तथा अंतमें नरक गया और मद्यपीनेसे यदुवंशीराजाके पुत्र नष्टहवे तथा वेश्याव्यसनके सेवनसे चारुदत्त सेठि दरिद्रावस्थाको प्राप्त हुवे तथा और भी नानाप्रकारके दुःखोंका उनको सामना करना पड़ा और शिकारकी लोलुपतासे ब्रम्हदच नामका राजा राज्यसे भ्रष्ट हुवा तथा उसे नरक जाना पड़ा। तथा चोरीव्यसनसे सत्यघोषनामक पुरोहित गोबर खाना सर्वधनहरण हो जाना आदि नानाप्रकारके दुःखोंको सहनकर अंतमें मल्लकी मुष्टिसे मरकर नरकको गया। तथा परस्त्रीसेवनसे रावणको अनेक दुःख भोगने
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॥१८॥
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